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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन की जब तक सम्यक्प्रकार से पूर्ण निवृत्ति नहीं होती, तब तक उस जीव के रागरूप क्रिया और परिणाम दोनों ही शेष रहते हैं। ".....बराबर परिपक्वता को प्राप्त नहीं होता अर्थात् क्रिया का मूल से विनाश नहीं हुआ है।...." ___ सम्यग्दृष्टि आत्मज्ञानी को मिथ्यात्व का नाश तो हुआ है; किन्तु रागरूप क्रिया का पूर्ण अभाव नहीं होने से परिपूर्ण वीतरागता नहीं है; क्योंकि राग के भावस्वरूप क्रिया का अभी मूल से विनाश नहीं हुआ। क्रियाकांड करते-करते सम्यक्त्व और ज्ञान होगा - ऐसा कोई माने या कहे तो उन्हें अभी सर्वज्ञ देव के मार्ग की खबर ही नहीं है। वे तो सर्वज्ञ के मार्ग से दूर ही हैं। राग से आत्मा सदैव निवृत्त है, प्रवृत्त नहीं। समकिती को वर्तता हुआ राग शुभक्रियाकांडरूप हो या शुभोपयोगरूप वह बंधन का ही कारण है। राग को छोड़ने से स्थिरता हो जायेगी अथवा शुभराग को छोड़ देंगे तो अशुभराग में चले जायेंगे इत्यादि प्रश्न यहाँ नहीं हैं। राग छूटेगा तो स्वरूपस्थिरता अवश्य होगी ही होगी। राग का फल मात्र बंधन ही है - ऐसा उपदेश सर्वज्ञ, वीतरागी, त्रिलोकीनाथ परमात्मा की वाणी में आया है। सौधर्म स्वर्गादि में शक्रेन्द्र के बत्तीस लाख विमान होते हैं, एकएक विमान में असंख्य देव रहते हैं, कदाचित् किसी विमान में कुछ कम देव हो, उनका स्वामी शकेन्द्र एक भवावतारी होता है। सिद्धान्त में भी उसे एक भवावतारी कहा हैं। करोड़ों अप्सराओं और असंख्य देवों का वह स्वामी कहलाता हैं - ऐसे इन्द्र को भी भगवान की वाणी समझने का भाव आता है, वह इन्द्राणी सहित सीमन्धर परमात्मा के समवशरण में दिव्यध्वनी सुनने जाता है। यद्यपि इन्द्र को पता है कि यह उसका अन्तिम भव है। अगले भव में मनुष्य होकर वह मोक्ष जायेगा, तथापि उसे भी तीर्थंकर भगवान की दिव्यध्वनी सुनने का भाव आता है। उसकी मुख्य इन्द्राणी भी एक भवावतारी ही होती है; किन्तु पूर्व में मायाचार के बीज बोए होंगे तभी स्त्री पर्याय में उत्पन्न हुई है। देवीपर्याय में जन्म लेने पर भी वह मिथ्यादृष्टि ही होती है; परन्तु इन्द्र के साथ भगवान का गर्भ-जन्मकल्याणक मनाने जाती है, तब आत्म ज्ञानपूर्वक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कर लेती है। सिद्धान्त में इन्द्राणी को भी एक भवावतारी कहा है अर्थात् वह भी एक भव पश्चात् मोक्ष जानेवाली है। मोक्ष जानेवाले जीव आत्मज्ञानी होते हैं। अवधिज्ञानी, मति-श्रुतज्ञानी सम्यग्दृष्टि भी भगवान की वाणी समझते हैं। वहाँ भगवान की वाणी में यही आता है कि जबतक राग से पूर्ण निवृत्ति नहीं है, तबतक बंध है, अत: हे भाई! तू राग से पूर्ण निवृत्त होने का उपाय शीघ्र ही कर। शत्रुजय पर्वत पर पाँच पाण्डव ध्यानावस्था में लीन थे, उससमय दुर्योधन के भानजे ने उन्हें लोहे के गर्म आभूषण पहनाये। धर्मराज युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तो अपने आत्मस्वरूप में लीन होकर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष चले गये । शत्रुजय पर्वत सिद्धक्षेत्र कहलाया। सिद्धक्षेत्रों की यात्रा आदि करने का उद्देश्य ही यह है कि संतों ने जैसे मोक्ष पर्याय प्राप्त की है, वैसी मोक्षपर्याय हमें भी प्राप्त हो । __ इन सिद्धक्षेत्रों पर जाने से सिद्धों के स्वरूप का स्मरण होता है - ऐसा लगता है भगवान यहाँ से मोक्ष गए हैं, ठीक ऊपर विराजे हैं; किन्तु यह विचार भी शुभभाव ही समझना । ___ पाँच पाण्डव मुनिराजों में तीन मुनिराज तो मोक्ष पधारे और दो मुनियों को जरा-सा विकल्प आया कि इन गर्म आभूषणों के पहनाने से हमारे तीन मुनि भाइयों का क्या हुआ होगा ? बस, इतने मात्र से उनके कर्मनिवृत्ति अर्थात् राग से निवृत्ति नहीं हुई। 20
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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