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ज्ञानधारा-कर्मधारा कराते हैं; अत: उस अल्परस व स्थिति की गिनती न करके सम्यग्दृष्टि के भोग को निर्जरा का कारण कहा है।
अरे ! वीतरागी संतों का मार्ग तो परमात्मस्वरूप है। उसके अवलंबन से जितनी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में शुद्धता प्रकट हुई, वह मोक्ष का कारण है और जितने पंच महाव्रतादि पालन के जो विकल्प उठते हैं, फिर चाहे वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के ही क्यों न उत्पन्न हों, वे सब शुभरागरूप होने से मात्र बंध के ही कारण हैं।
यद्यपि एक ही काल में सम्यग्दृष्टि जीव के शुद्धज्ञान अर्थात् अनुभवज्ञान और क्रियारूप परिणाम अर्थात् दया, दान, बारह व्रतादि, भक्ति-पूजा के परिणाम भी होते हैं, किन्तु उन दोनों का एकसाथएकसमय में होने में कोई बाधा नहीं है। एक भाव मोक्ष का कारण है और दूजा भाव बंध का कारण है।
आत्मवस्तु के श्रद्धान बिना ही अज्ञानी जीव पंच महाव्रतादि पालन के भाव को मोक्ष का कारण मानता हैं; किन्तु हे प्रभु ! इस मान्यता से आत्मा को हानि ही है, लाभ नहीं।
पंच महाव्रतादि के पालन से तेरा हित कभी नहीं होगा - ऐसा ज्ञानी जीव कहते हैं। सम्यग्दृष्टि को भी व्रत-नियम आदि से बंध होता है; अत: व्रत-तपादि करने से धर्म, मोक्षमार्ग होता है - ऐसी अज्ञानी जीव की प्ररूपणा ही मिथ्या प्ररूपणा है।
साधक को ज्ञानस्वरूप का वेदन और राग की क्रिया दोनों एकसाथएक समय में ही वर्तती हैं, उससमय उसके ज्ञानधारा और कर्मधारा - दोनों दो धाराएँ अन्तर में प्रवर्तित हो रही है। जिसमें ज्ञानधारा मोक्ष का कारण है और रागधारा बंध का कारण है। ___ सम्यग्दृष्टि आत्मानुभवी को आनन्द का स्वादिष्टपना है और साथ में दया-दान-व्रत-भक्ति-पूजा-शास्त्रवाचन-श्रवण आदि रूप जितने
बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन भी शुभभाव हैं, वे सब बंध के कारण हैं और उनसे मात्र बंध ही होता है। अंशमात्र भी संवर-निर्जरा उससे नहीं होती है।
अहाहा ! स्वद्रव्य के आश्रय से जितनी निर्मलता अंतरंग में प्रकट हुई, उतना मोक्षमार्ग है और बाह्य में परद्रव्य के आश्रय का भाव भी उत्पन्न हो, तो वह बंध का कारण है।
प्रश्न :- तो फिर किसका अवलंबन लेना चाहिए ?
उत्तर :- निजात्मा का अवलम्बन लेना है। पर का अवलंबन लेने से राग की उत्पत्ति होगी और राग बंध का कारण है । चैतन्य सहजानन्द प्रभु का जितना आश्रय-अवलंबन लिया, उतनी सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र में निर्मलता प्रकट होती है, यही मोक्षमार्ग है।
प्रश्न :- क्या सम्यग्दृष्टि को बंध नहीं होता?
उत्तर :- यह बात पूर्व में अनेक अपेक्षाओं से कही जा चुकी है। दृष्टि की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि को बंध नहीं होता, किन्तु अल्पराग से अल्प स्थिति-बंध अवश्य होता है; तथापि यहाँ उसे गौण करके सम्यग्दृष्टि को बंध नहीं है - ऐसा कहा।
वास्तव में जिस साधक को चारित्र की कमजोरीवश परद्रव्य के अवलंबन में लक्ष्य जाने से राग उत्पन्न होता है, वह राग बंध का ही कारण है। उससे कोई बचना चाहे, तो चल जायेगा, यह संभव नहीं है।
सम्यग्दृष्टि को भी विषय-कषाय, कमाना इत्यादि अशुभभाव आते हैं, किन्तु वे बंध के ही कारण हैं । जबतक पूर्ण प्रकटरूप अबंध परिणमन न हो, तबतक बंधभाव ही है। ___ चौरासी लाख अवतारस्वरूप भवसमुद्र में रखड़ते हुए यह जीव परिभ्रमण कर रहा है। वहाँ एक दिन भी मैं शुद्ध चिदानन्द आत्मा हूँ' - ऐसा जानकर निजात्मा की शरण नहीं ली और अब अपने आत्मा की शरण ली है तो कमजोरीवश शुभक्रियारूप भाव आते हैं, वे भी भवबंध
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