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भक्तामर प्रवचन
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परमात्मा के गुणों को गूँथकर स्तोत्र बनाओ। फलतः मानतुङ्ग मुनि ने इस भक्तामर स्तोत्र की रचना की।
भक्तामर स्तोत्र में जिनेन्द्र भगवान के रूप-सौन्दर्य का, उनके अतिशयों और प्रातिहार्यों का तथा उनके नाम-स्मरण के माहात्म्य से स्वतः निवारित भयों एवं उपद्रवों का अच्छा संतुलित वर्णन किया गया है। इसमें अनावश्यक पाण्डित्य प्रदर्शन से स्तोत्र को बोझिल नहीं होने दिया गया है और न ही समन्तभद्र की तरह तार्किकता एवं दार्शनिकता से दुरूह होने दिया गया है। यद्यपि दार्शनिकता व तार्किकता के कारण समन्तभद्राचार्य के स्तोत्र उच्च कोटि के शास्त्र बन गये हैं, परन्तु वे दार्शनिक दुरूहता के कारण भक्तामर की तरह प्रतिदिन पाठ करने के लिए जन-जन के विषय नहीं बन पाये हैं। आचार्य समन्तभद्र की तार्किक बुद्धि और दार्शनिक चिन्तन उनके हृदयपक्ष पर हावी रहा, परन्तु इससे उनके स्तोत्रसाहित्य में भी यह विशेषता रही कि भावुकतावश होनेवाले कर्तृत्वादि के आरोपित कथन उनके स्तोत्रों में नहीं आने पाये।
देवागम स्तोत्र, स्वयम्भू स्तोत्र, एकीभाव स्तोत्र एवं कल्याणमन्दिर स्तोत्र की भाँति ही इस स्तोत्र का नाम भी प्रथम छन्द के प्रथम पद के आधार पर ही प्रचलित हुआ है। इसका दूसरा नाम आदिनाथ स्तोत्र या ऋषभ स्तोत्र भी है। दूसरे नाम के सन्दर्भ में विचारणीय बात यह है कि मात्र 'प्रथमं जिनेन्द्र' और 'युगादी' पदों से ही यह 'आदिनाथ स्तोत्र' कहा जाता है।
"यदि 'प्रथमं जिनेन्द्र' का अर्थ जिनेन्द्रों (अरहन्तों) में प्रमुख अर्थात् तीर्थंकरदेव कर लिया जाये तथा 'युगादी' का अर्थ तीर्थंकर के जन्म से प्रारम्भ होता है - यह माना जाये तो यह सामान्यतया सभी तीर्थंकरों या जिनेन्द्रों की स्तुति है। वैसे भी स्तोत्र में कहीं भी किसी भी तीर्थंकर विशेष का नामादि परिचयसूचक कोई स्पष्ट संकेत नहीं है।
भक्तामर स्तोत्र के काव्यों की संख्या में भी कुछ मतभेद हैं। केवल मन्दिरमार्गी श्वेताम्बर जैन इस स्तोत्र की काव्य संख्या ४४ मानते हैं। शेष सभी दिगम्बर जैन, स्थानकवासी एवं तेरापंथी श्वेताम्बर आदि एक मत से ४८ काव्य ही मानते हैं। ४४ काव्यों के माननेवाले ३२ से ३५ तक चार काव्यों को नहीं मानते, इन्हें प्रक्षिप्त
१. अनेकान्त, अंक १९६६, पृष्ठ २४५
२. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन भक्तामर रहस्य की प्रस्तावना, पृष्ठ २८
प्रस्तावना
कहते हैं; परन्तु इससे उनके यहाँ चार प्रातिहार्यों का वर्णन छूट जाता है, जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी पूरे आठ प्रातिहार्य माने गये हैं।
कल्याणमन्दिर स्तोत्र में भी भक्तामर की तरह पूरे आठ प्रातिहार्यों का वर्णन है और उसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी अविकलरूप से मानता है। तब फिर भक्तामर
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के उक्त चार काव्यों को क्यों नहीं मानता ? सम्भव है, कल्याणमन्दिर स्तोत्र में ४४ ही काव्य हैं, अतः भक्तामर में भी ४४ ही होने चाहिए इस विचार से ऐसा किया हो ।' अस्तु -
भक्तामर स्तोत्र के कर्ता मानतुङ्ग सूरि कौन थे, कब हुए ? यह विषय इतिहा की शोध-खोज का विषय है। ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर १३ वीं शताब्दी तक १० मानतुङ्ग सूरि हुए हैं, उनमें भक्तामर स्तोत्र के कर्त्ता कौन थे यह कह पाना कठिन है।
इस स्तोत्र के कर्त्ता मानतुङ्ग कवि को कुछ इतिहासज्ञ विद्वानों ने हर्षवर्द्धन के समकालीन बताया है। चूँकि सम्राट हर्षवर्द्धन का समय ७ वीं शती है, अतः मानतुङ्ग का समय भी ७ वीं शताब्दी होना चाहिए।
तथ्यों से पता चलता है कि भक्तामर के रचयिता मूलत: ब्राह्मण, धर्मानुयायी और कवि थे। बाद में अनेक परिवर्तनों के बाद दिगम्बर जैन साधु हो गये थे । उन्हीं ने यह भक्तामर काव्य बनाया।
विभिन्न दिगम्बर एवं श्वेताम्बर शास्त्र भण्डारों में भक्तामर स्तोत्र की एवं तत्सम्बन्धी अन्य साहित्य की अनेकानेक हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती हैं, जिनमें कुछ तो १२ वीं - १३ वीं ई. शती तक की पायी जाती हैं।"
भक्तामर स्तोत्र पर बहुत से प्राचीन विद्वान साहित्यकारों ने विपुल मात्रा में विविध प्रकार के साहित्य का सृजन किया है। जैसे भक्तामर स्तवन-पूजन, भक्तामरस्तोत्र वृत्ति - टीका या वचनिका, पुरातन हिन्दी पद्यानुवाद, भक्तामरचरित कथा आदि। (विस्तृत जानकारी के लिए देखें । ५)
१. पण्डित रतनलाल कटारिया जैन निबन्ध रत्नावली, पृष्ठ: ३३८ २. वही, पृष्ठ: ३३९
३. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन भक्तामर रहस्य की प्रस्तावना, पृष्ठ ३६
४. वही, पृष्ठ ३७
५. वही, पृष्ठ: ३९