SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ भक्तामर प्रवचन काव्य ४५ पर प्रवचन इस काव्य में यह कहा जा रहा है कि वीतराग भगवान की भक्ति करने वाले धर्मात्मा जीवों को किसी प्रकार के रोग नहीं सताते । भगवान की भक्ति से धर्मात्माओं के रोगों का नाश हो जाता है। जलोदर जैसे महारोग से शरीर जल गया हो, पेट में पानी भर गया हो, शरीर की शोचनीय दशा हो गई हो, जीवन की आशा छूट गई हो अर्थात् मरणासन्न दशा को प्राप्त हो गया हो; तथापि जो धर्मात्मा आपकी चरण-शरण में आते हैं, भक्तिभाव से आपके चरण-कमल की रज मस्तक पर धारण करते हैं, उनके पाप क्षीण हो जाते हैं तथा पुण्योदय का सुमेल होने से ऐसे भयंकर रोग भी नष्ट हो जाते हैं और वे निरोगी हो जाते हैं। इसलिए आपकी महिमा गाने की भावना होती है। ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा के आश्रय से जब भ्रान्ति का रोग नष्ट हो जाता है तो आपकी भक्ति से हुए पुण्य के फल में यदि बाह्य रोग नष्ट हो जाते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। भगवान के चरण-कमल के नीचे की पृथ्वी एवं उसकी धूल की पवित्रता की बात कहकर आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि - हे भगवन् ! मैं आपके चरणों की सर्वत्र महिमा देखता हूँ। धूल का कण-कण आपके चरणों के स्पर्श से मानो पवित्र हो गया है। जो भी उस धूल को मस्तक पर धारण करता है, उसके सभी प्रकार के रोग मिट जाते हैं। जो आपकी चरण-शरण में आया, उसका जन्म-जन्मान्तर का रोग भी नहीं रहता । किसी कवि ने कहा है चलता-फिरता प्रगट प्रभु देखूं रे, अपना जीवन सफल तब लेखूँ रे; मुक्तानन्द नो नाथ बिहारी रे. शुद्ध है जीवन दोरी हमारी रे।। अर्थात् जब मैं चलते-फिरते प्रभु के दर्शन करूँगा, तब अपना जीवन सफल समझँगा । मुक्तानन्द का नाथ तो चैतन्यविहारी है। निरन्तर अन्तरंग कारणशक्ति की महिमा देखनेवाला परमात्मा के गाने गाता है। भक्त कहता है कि जबतक तीनलोक व तीनकाल को जानने की शक्ति प्रगट न हो जाये, तबतक अखण्ड ज्ञानस्वभाव की महिमा नहीं छूटती । द्रव्यस्वभाव काव्य- ४५ १४९ की मुख्यता कभी छूटती नहीं और पुण्य पाप तथा निमित्त की मुख्यता कभी ज्ञानी के आती नहीं । जब स्वभाव के आश्रय से मिथ्यात्व जैसे रोग मिट जाते हैं तो बाहर में शरीर के रोग मिट जायें तो इसमें क्या आश्चर्य है ? जिसने आपके चरणों की रज अपने मस्तक पर ली है, वह कामदेव समान महान रूपवान हो जाता है । भक्ति के शुभराग का आदर नहीं है; तथापि वीतरागदृष्टि वाले के ऐसा पुण्य सहज बँधता है कि बाह्यरोग मिट जाते हैं। सम्यग्दर्शन की भूमिका में ऐसा पुण्य सहज बँध जाता है। जैसे सर्वज्ञ परमात्मा का कार्य भी मात्र जानना ही है, वे कुछ करते-कराते नहीं हैं, उसीप्रकार मेरा कार्य भी मात्र जानना ही है। जिसने ऐसा मान लिया, उसके अभ्यन्तर रोग तो नष्ट हो ही जाते हैं, बहिरंग रोग भी नाश को प्राप्त हो जाते हैं। हे नाथ! जो वस्तु का वास्तविक स्वरूप जानकर आपके चरणों का ध्यान करता है अर्थात् जिसको आत्मस्वभाव की श्रद्धापूर्वक भक्ति का राग उठा है, वह सर्वज्ञ परमात्मा का ध्यान करता है। जहाँ अन्तरंग में निरोगतारूप वीतरागभाव बढ़ता है, वहाँ शारीरिक रोग कैसे रह सकते हैं? क्योंकि वहाँ पुण्य का रस बढ़ता है और जलोदरादि रोग नष्ट हो जाते हैं। सन्तों की भक्ति मर्म से भरी हुई है। उनके अन्तरंग व बहिरंग भय नहीं है। आचार्यदेव जानते हैं कि हमें अगले भव में स्वर्ग जाना है, उसके बाद हम केवलज्ञान प्राप्त करेंगे। ऐसी पवित्रता व उत्कृष्ट पुण्य का रस आपके शासन में होता है। मिथ्यादृष्टि को ऐसी पवित्रता नहीं होती और ऐसा पुण्य भी नहीं बँधता । शीघ्र अनुभव कीजिए मैं कौन हूँ, आया कहाँ से, और मेरा रूप क्या? संबंध दुःखमय कौन है, स्वीकृत करूँ परिहार क्या ? इसका विचार विवेक पूर्वक, शान्त होकर कीजिये । तो सर्व आत्मिक ज्ञान के, सिद्धान्त का रस पीजिये ॥ ४ ॥ किसका वचन उस तत्त्व की उपलब्धि में शिवभूत है? निर्दोष नर का वचन रे! वह स्वानुभूति प्रसूत है । तारो अहो! तारो निजात्मा, शीघ्र अनुभव कीजिये । सर्वात्म में समदृष्टि द्यो, यह वच हृदय लिख लीजिये ॥ ५ ॥ - श्रीमद् रायचन्द्र अमूल्य तत्त्व विचार
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy