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________________ ११६ भक्तामर प्रवचन निमंत्रण पत्रिका में लिखा जाता है कि घर का काम छोड़कर पधारें, विवाह की शोभा बढ़ावें; वैसे ही भगवान के समवशरण में श्री मण्डप होता है, उसमें बारह सभायें होती हैं. अन्तरंग स्वरूप लक्ष्मी कैसी है - यह जानना, सुनना हो तो मण्डप में (समवशरण में) पधारें। तीन लोक के देव एवं मनुष्य भी वहाँ आवें तो जगह की कमी न हो- ऐसी उनकी पुण्य प्रकति है। हे नाथ ! आप ही सच्चे जैनधर्म की घोषणा करनेवाले हैं। आप ही घोषणा करते हैं कि आत्मधर्म, पुण्यरहित, संयोगरहित है और प्रत्येक आत्मा में सर्वज्ञत्व-शक्ति है। इस पुण्यपापरहित, संयोगरहित ज्ञान-स्वभाव के आश्रय से ही धर्म होता है - 'ऐसी देशना समवशरण में होती है कि जो देह की क्रिया से या पुण्य से धर्म होना मानता है वह भगवान को नहीं समझता है। दुन्दुभि सबको निमंत्रण देती है कि भगवान की देशना सुनने के लिए पधारें। भगवान वाणी के कर्त्ता नहीं हैं, उनके उपदेश करने की इच्छा भी नहीं है, उनके वाणी सहज ही प्रकट होती है। जैसा उनका वीतराग पद है, वैसी ही उनकी वाणी होती है। उसके अवलम्बन से शान्ति मिलती है, इसलिए उसे सुनने के लिए समवशरण में आवें । जैसे- संसार में दश वर्ष काम करनेवाले का सम्मान समारोह करते हैं, वैसे ही भगवान की प्रभुता - कीर्ति बताने के लिए दुन्दुभि प्रकट होती है। जिसके ऐसी पुण्य-प्रकृति का उदय हो, उसके आहार-पानी की आवश्यकता नहीं होती है। केवलज्ञान के पूर्वतक आहार होता है और मल-मूत्रादि नहीं होते; किन्तु केवलज्ञान हो जाने के बाद अरहंत को कवलाहार भी नहीं होता एवं भगवान केरक्तातिसार ज्वर हो एवं दवा लेनी पड़े- ऐसा भी नहीं होता है। जब स्वर्ग के देवों केही रोग नहीं होता तो वीतरागी देव के रोग होने का तो प्रश्न ही कहाँ? इसी प्रकार देवों के रोटी, दाल, भात आदि का आहार नहीं होता, तब वीतरागी भगवान के आहार की बात कैसे हो सकती है? स्वर्ग के देवादि जिस पूर्ण वीतराग प्रभु का गुणगान करते हैं, उस प्रभु के आहार, रोग, उपसर्ग आदि अठारह दोष नहीं होते हैं। काव्य ३३ मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा। गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रयाता दिव्या दिवः पतति ते वचसांततिर्वा ।।३३।। हिन्दी काव्य मन्द पवन गन्धोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहप सुवृष्ट। देव करें विकसित दल सार, मानौं द्विज-पंकति अवतार ।।३३।। अन्वयार्थ - [हे नाथ! ] (गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रयाता) सुगन्धित जलकणों से सहित सुखद-मांगलीक मन्द-मन्द समीर, धीमी-धीमी पवन के झोंकों के साथ गिरनेवाली (उद्धा दिव्या) ऊर्द्धमुखी-उत्कृष्ट, मनोहर देवोपनीत-स्वर्गीय, (मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपरिजात-सन्तानकादि) मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात तथा सन्तानक आदि वृक्षों के (कुसुमोत्कर) सुमनों की (वृष्टिः) वर्षा (दिवः पतति) आकाश से गिरती है। (वा) तथा (ते वचसां ततिः पतति) आपके वचनों की पंक्ति अर्थात् दिव्यध्वनि खिरती है। काव्य ३३ पर प्रवचन हे नाथ! पुष्पवृष्टि और सुगन्धित जलवर्षा बाह्य और अभ्यंतर प्रसन्नता की द्योतक है। जैसे लोक में साधारण जन के स्वागत में फूल बिखेरे जाते हैं, उसीप्रकार भगवान के समवशरण में दिव्यपुष्पों की वृष्टि होती है। सुगंधित जलबिन्दु और मंद-मंद हवा के साथ फूल गिरते हैं, किन्तु इससे भगवान को कुछ प्रयोजन नहीं है। यह सब तो देवता अपनी भक्तिवश करते हैं । सन्तों के हृदय में भी आत्मा का आनन्द हिलोरें लेता है और तीर्थंकर भगवान तो साक्षात् पूर्ण परमानन्द रूप हैं। उनके समवशरण में जो दिव्य फूल बरसते हैं, उनकी डंडी एवं मुख ऊपर की ओर रहता है। यह भगवान के इस उपदेश का प्रतीक है कि अंतर में वृद्धिंगत होओ एवं पवित्रता में ऊर्ध्वमुखी बनो। मिथ्यात्वरूपी महारोग जैन वचन अंजनवटी, आँजै सुगुरु प्रवीन। रागतिमिर तऊ ना मिटे, बड़ो रोग लखि लीन।। - कविवर भूधरदास : जैन शतक, छन्द ३६
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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