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________________ १०२ भक्तामर प्रवचन काव्य-२६ १०३ आभूषणों, माणिक-मोतियों और स्वर्ण थालियों से जगत की शोभा नहीं है। निज चैतन्य भगवान द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त करने में ही चेतन और जगत की सच्ची शोभा है। हे प्रभो! अधोलोक, मध्यलोक एवं उर्ध्वलोक में आप ही सच्चे आभूषण हैं; क्योंकि आप केवलज्ञान को पाकर अनंत सुखी और जगतपूज्य हुए हो । जगत आप से ही सुशोभित होता है। जगत मात्र आत्मा की पूर्णशक्ति से सुशोभित होता है। जवाहरात, आभूषण, झालर आदि में शोभा नहीं है। स्त्रियों से भी घर की और जगत की शोभा नहीं है। पुराणों में भगवान नेमिनाथ का प्रसंग आया है कि नेमिनाथ जब विवाह के लिए जा रहे थे, तब वासुदेव, बलदेव आदि उनके साथ थे। इन्द्रों ने उन्हें दिव्य हार भेंट में दिये। उनके उससमय चारित्रदशा नहीं थी, किन्तु हरिण-बकरे आदि पशुओं की करुण चीत्कार सुनकर उन्होंने सारथी से चीत्कार का कारण पूछा, तब सारथी ने बताया कि "कपट-पूर्वक पशुओं को बंद किया गया है।" नेमिनाथ को तुरन्त भान हुआ कि ऐसे दुःखमय, कपटमय संसार एवं भोगों को धिक्कार है। तीर्थंकर तो गृहस्थदशा में भी - आभूषण, वस्त्र, भोजन आदि के भोग में रुचि नहीं लेते हैं, किन्तु स्वर्ग के देव इन्हें भक्तिवश भेंट कर जाते हैं। उनके भी ऐसा असीम पुण्य होता है। इस कपटपूर्ण व्यवहार का ख्याल आते ही वे सारथी को रथ वापस करने को कहते हैं। तीर्थंकर के मन की विरक्तता की क्या बात करनी? वे निश्चय करते हैं कि मैं शीघ्र ही गृहवास छोड़कर भगवती जिनदीक्षा धारण करूँगा, वे उसी समय दिव्य नवीन रत्नहार, बाजूबंध आदि को उतार देते हैं, जिनकी चमक सूर्य, चन्द्र के प्रकाश से भी अधिक है। राजुलमती दूर से देखती है कि नेमिनाथ वापस जा रहे हैं । नेमिनाथ को अपने स्वरूप का भान था, उनके विशेष निर्मल दशा प्रकट होते ही लौकान्तिक देव आकर वैराग्यवर्धक वचन कहते हैं, इन्द्र पालकी से उन्हें जंगल में ले जाते हैं, वे नग्न दिगम्बर होकर केशलोंच करते हैं। इन्द्र भी उनके वैराग्य की प्रशंसा करते हैं - इसप्रकार स्त्री, आभूषण माणिक-मोती आदि भोग सामग्री - सभी वस्तुयें भगवान ने क्षण-भर में त्याग दीं, क्योंकि इनमें कोई शोभा नहीं है। एक केवलज्ञान ही शोभा की वस्तु है; जिसे पाने के लिए नेमिनाथ भगवान ने जिन दीक्षा ले ली। भगवान का भक्त कहता है कि मुझे तीनलोक में आपके सिवाय अन्य कुछ शोभायमान नहीं दिखता। शुद्ध चैतन्य मूर्ति आत्मा के केवलज्ञान ही मात्र आभूषण हैं। मेरे नमस्कार की वृत्ति हो तो आपको (भगवान को) ही नमस्कार करूँ; किन्तु कुदेवादि का राग स्वप्न में भी नहीं आये। यदि थोड़ी कमजोरी से संसार संबंधी राग हो तो भी स्व को भूलकर राग की अधिकता नहीं हो। तीनलोक में पूर्ण ईश्वरपना मात्र आपके ही प्रगट है। केवलज्ञानी, तीनकालवर्ती, तीनलोक को जानते हैं; किन्तु उन्हें केवल जानना है, करना कुछ भी नहीं है - यही सर्वज्ञता है। जो पर का कुछ करना चाहता है, वह सर्वज्ञ नहीं है। भक्त आपको परमेश्वर के रूप में नमस्कार करता है - "हे अविकारी-पूर्णानन्द प्रभु! आप संसाररूपी समुद्र को सुखाने वाले हैं। आपने पर्यायगत भ्रान्ति और रागद्वेष को निर्धान्त स्वभाव के आश्रय से नाश किया है। इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जो राग से धर्म होना माने वह देव नहीं है। हे जिन! आपके संयोग एवं राग का आश्रय नहीं है, आपकी ईश्वरता उत्कृष्ट है इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपकी महिमा केवलज्ञान से है, आपको मान्यता-महत्ता देने वाला राग को मान्यता-महत्ता नहीं देता। आपने शुद्ध स्वभाव को प्रकट किया है, आपके कुछ भी बाकी नहीं है। मैं अपना संसार समुद्र सुखाने में आपको कारण मानता हूँ, इसलिए आपको नमस्कार करता हूँ। सोने की थाली ..... जैसे थाली चाहे सोने की हो, परन्तु यदि उसमें जहर भरा हो तो वह नहीं शोभता और खानेवाला भी मरता है; उसीप्रकार कोई जीव चाहे पुण्य के ठाठ के मध्य में पड़ा हो, परन्तु यदि वह मिथ्यात्व रूपी जहर सहित है तो वह नहीं शोभता, वह संसार में भावमरण कर रहा है। और जिसप्रकार थाली चाहे लोहे की हो, परन्तु उसमें अमृत भरा हो तो वह शोभा पाती है और खानेवाले को भी तृप्ति देती है, उसीप्रकार चाहे प्रतिकूलता के समूह में पड़ा हो, परन्तु जो जीव सम्यग्दर्शन रूपी अमृत से भरा हुआ है, वह शोभता है, वह आत्मा के परम सुख को अनुभवता है और अमृत जैसे सिद्धपद को भी प्राप्त करता है। - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी : श्रावक धर्मप्रकाश, पृष्ठ १६,
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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