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________________ काव्य १५ काव्य १५ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभि नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् । कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन किंमन्दराद्रि-शिखरंचलितं कदाचित् ॥१५॥ हिन्दी काव्य जो सुर-तिय विभ्रम आरम्भ, मन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ। अचल चलावै प्रलय समीर, मेरु-शिखर डगमगै न धीर ।।१५।। अन्वयार्थ - भगवन् ! (यदि ते मनः) अगर तुम्हारा मन (त्रिदशाङ्गनाभिः) देवाङ्गनाओं द्वारा अर्थात् देवलोक की अप्सराओं द्वारा (मनाक् अपि) जरा भी, थोड़ा भी (विकार-मार्गम्) बुरे भाव की ओर अर्थात् विकारमार्ग की ओर (न नीतम्) नहीं खींचा जा सका (अत्र किं चित्रम्) तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? (चलिताचलेन) पहाड़ों को भी चलायमान कर देनेवाली (कल्पान्तकाल-मरुता) प्रलयकाल की पवन द्वारा (किं-मन्दराद्रि-शिखरम्) क्या सुमेरु पर्वत की चोटी (कदाचित् चलितम्) कभी चलायमान की गई है ? (अपितु न चलितम्) अर्थात् कभी नहीं। काव्य ११ पर प्रवचन 'हे नाथ! आपकी चित्तवृत्ति प्रारम्भ से अडोल थी।' आपने पूर्ण निर्विकारी स्वरूपदशा प्रगट की। उसके पहले जब आप गृहस्थदशा में थे, तब भी देवलोक की अप्सरायें आपको विचलित नहीं कर सकी थीं। वस्तुतः देवलोक की इन्द्राणी या अप्सराओं में आपको विचलित करने की शक्ति ही नहीं है। हे प्रभु! आप तो शांतरस में पूर्णत: निमग्न हैं। आपको तीन लोक के समस्त पदार्थ ज्ञेयमात्र हैं, क्योंकि निमित्तों में विकार उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है। हे नाथ! आप सदैव निर्विकारी स्वरूप में मग्न रहते हैं, इसलिए आपके लिए सुन्दर अप्सरायें भी मोह-राग-द्वेष उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हैं अर्थात् आपमें पर या निमित्त के कारण मोह-राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं होता। जिस तरह कल्पान्त-काल में चलनेवाली प्रचण्ड वायु भी मेरुपर्वत को नहीं डिगा सकती। वह असम्भव कार्य भले ही सम्भव हो जाय अर्थात् सुमेरु पर्वत हिले तो हिल जावे, तथापि आपके मन को तो कोई भी नहीं डिगा सकता। सम्मेदशिखर शाश्वत तीर्थ क्षेत्र है, उसका कभी अभाव नहीं होता । उसके नीचे स्फटिक का साँथिया है। अनन्त चौबीसी के अधिकांश तीर्थकर वहीं से मोक्ष जाते हैं। भविष्य में भी अनन्त तीर्थंकरों का मोक्षधाम सम्मेदशिखर होगा। इन्द्र वहाँ मोक्षकल्याणक का उत्सव आयोजित करते हैं। पर्वतराज में यत्किंचित् फेर-फार भले ही हो जावे, किन्तु स्थान नहीं बदलता । उसका शाश्वतरूप नहीं बदलता, उसका शाश्वतरूप हमेशा स्थाई रहता है। भरतक्षेत्र के अन्य पर्वतों में परिवर्तन होता रहा है तथा कभी-कभी नष्ट भी हो जाते हैं, किन्तु अभी तक मेरुपर्वत के शिखर को नष्ट करने की बात तो दूर रही, उसे कोई हिला भी नहीं सका। उस पर्वतराज में रत्नमयी शाश्वत प्रतिमायें हैं। चन्द्र, सूर्य के विमानरूप देश का कभी नाश नहीं होता। हे भगवन् ! जैसे मेरुपर्वत का शिखर कभी चलायमान नहीं होता, वैसे ही आप अपनी अविकारी दशा में सुन्दरतम अप्सराओं से भी चलायमान नहीं होते, आपका मन डिगता नहीं है। जगत में अज्ञानी जन भक्तामर स्तोत्र से लौकिक लाभ की कामना करते हैं, किन्तु यह उनका भ्रम है। वास्तव में सच्चा भक्त तो लौकिक वस्तु की कांक्षा ही नहीं करता । सम्यग्दृष्टि अपने आगामी शेष भवों में उच्च गोत्र एवं उत्तम शरीर में जन्म लेता है। अगर कोई जीव ने सम्यक्त्व के पूर्व गरीब घर में जन्म लिया हो तो सम्यग्दर्शन होने पर उसके अन्तर तथा बाह्य में भी सम्पन्नता हो जाती है। __ हे प्रभु ! आपका ध्येय अचल है। आप नित्य, शांत एवं अविकारी हैं, आपके अनन्त गुण प्रकट हए हैं, आपके कुछ भी उद्धतता (प्रयत्न) नहीं है। आपने अपने मन को पूर्णत: वश में कर लिया है। जो आत्मा सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र में लीन रहते हैं, उसे कर्म या प्रतिकूल संयोग भी नहीं डिगा सकते।
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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