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________________ भक्तामर प्रवचन काव्य३ हमारे मन में इतना प्रबल हो रहा है कि अपनी शक्ति की मर्यादा तोड़कर भी आपकी भक्ति करने को हमारा मन तत्पर हुआ है। हे भगवन् ! आपके जहाँ चरण पड़ते हैं, वह भूमि पवित्र हो जाती है - ऐसे वर्णन में आपके ही गुणों की स्तुति की बात है। जब आप शुक्लध्यान में थे, उस काल और उस क्षेत्र की भूमि भी आपके चरण-कमलों के स्पर्श के कारण आज भी पवित्र मानी जाती है; तब आपके गुणों की क्या बात !" सर्वप्रथम चरण-कमल के प्रताप की बात कही थी। अब कहते हैं कि "हे नाथ ! जिस सिंहासन पर आप विराजमान होते हैं, देव उसकी पूजा करते हैं; इन्द्र भी उस सिंहासन को पूज्य मानते हैं। तीर्थंकर और निग्रंथ मुनिराज जहाँ-जहाँ चरण रखते हैं, वीतरागता की रुचिवश धर्मात्मा जीव उन-उन स्थानों को पूजनीय मानते हैं। जहाँ-जहाँ आपके चरण पड़ते हैं, वहाँ-वहाँ की धूल एवं आसन भी पूज्य हैं - ऐसी वीतरागता का आदर करके धर्मी जीव धर्म का माहात्म्य बढ़ाते हैं।” जहाँ देवाधिदेव के चरण पड़ते हैं, वह स्थान तीर्थ हो जाता है। हे प्रभु ! आपने पूर्ण परमानन्द स्वरूप को पर्याय में प्रगट किया है, अत: आपके अनन्त आनन्द दशा प्रगट हुई है। हे नाथ ! मैं आपके गुणों की स्तुति करने में अत्यन्त समर्थ हूँ। 'वृष' का अर्थ 'पवित्रधर्म होता है और उत्कृष्ट' भी होता है। अतः जिन्होंने अपनी शक्ति से पर्याय में पवित्रता प्राप्त की, वे भगवन्त ऋषभदेव हैं। वैसे कर्मभूमि के प्रारम्भ में ऋषभदेव नाम के प्रथम तीर्थंकर भी हुए हैं। हे नाथ ! धर्मी जीवों में जब तक पूर्ण वीतरागता प्रगट न हो, तब तक आपकी सेवा करने का शुभराग आता है। उस समय भक्तिवश नमन आदि रूप देह की क्रिया, देह के योग्य परमाणुओं के कारण अपने स्वकाल में स्वत: होती है, जीव का राग और योगों का कम्पन निमित्तमात्र है। राज्य के काल में राग स्वतः आता है - ऐसा वस्तु का स्वतंत्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। ___हठ और विपरीत अभिप्रायरहित तीर्थंकर परमात्मा के प्रति बहुमान लानेवाली भक्ति स्वयं उछलती है, तब अनेक विशेषणयुक्त अलंकारों से स्तुति की जाती है। तीर्थंकर भगवान तो पूज्य हैं ही, किन्तु निश्चय से अपने अन्तरंग में निज शुद्ध चैतन्य आत्मा भगवान स्वरूप है - ऐसी धारणा जिसने की तो उसने व्यवहार में सर्वज्ञ भगवान को माना - ऐसा कहा जाता है। समयसार में एक प्रश्न किया गया है कि केवली भगवान की स्तुति किसने की ? तो वहाँ (गाथा ३१, ३२, ३३ में) कहा गया है कि जो भेदज्ञान द्वारा ज्ञेय-ज्ञायक संकर-दोष दूर कर जितेन्द्रिय हुए हैं, उन्होंने ही केवली भगवान की यथार्थ स्तुति की है। जो द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों से भिन्नता और ज्ञानस्वभाव की एकाग्रता करता है, वह भगवान की स्तुति करता है। दूसरों ने भगवान की स्तुति की ही नहीं। ____ हमारी श्रद्धा में तो असली स्वरूप का ही आदर है, इसलिए निश्चय-दृष्टि से तो मुक्त ही हैं, किन्तु श्री मानतुङ्गाचार्य को विकल्प उठा कि मुझे कैद में डाल दिया, इससे जैनधर्म की निन्दा होगी। इस विकल्प के काल में विकल्प मेटने के लिए मुनि तो भक्तिरस में लीन होते हैं और उसी काल में कारागार के ताले टूट जाते हैं और वे मुनि कारागार से बाहर निकल आते हैं, किन्तु वह सब पुण्य का प्रभाव था। जो राग हुआ, उसमें ज्ञानी को कर्तृत्वबुद्धि नहीं है। यदि कोई ऐसा माने कि ऐसा राग करने योग्य है तो वह मिथ्यादृष्टि है। धर्मात्मा आपको नित्य याद करते हैं एवं भक्ति-स्तुति करते हैं। बड़े-बड़े देव भी आपके चरणों की सेवा करते हैं तथा कहते हैं कि प्रभु ! आपके केवलज्ञान है, मेरे नहीं है। श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी कहा है - यही परमपद प्राप्त कर सकूँ ध्यान में, मनन चिन्तवन आत्ममनोरथ रूप को। तो यह निश्चय 'रायचन्द्र मन में धरो, प्रभु आज्ञा से पाऊँ, स्वयं स्वरूप को। यही मार्ग जीवन को सफल बनायेगा, अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आयेगा ।। हे सर्वज्ञ भगवन् ! आपने जो परमपद देखा, उसे प्रगट करने का मेरा अपूर्व अवसर कब आयेगा? उस अवसर का मात्र अनन्तवाँ भाग ही वाणी के संकेतों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। यह प्रस्तुत विषय सम्यग्दृष्टि मुनि का है, किन्तु
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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