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________________ काव्य१व २ भक्तामर प्रवचन माहात्म्य बतलाने के लिए स्तुति की गई है। हे प्रभु! इन्द्रों के मुकुट की शोभा नहीं है, क्योंकि मुकुट की मणियों के प्रकाशक तो आप ही हैं। आपके शरीर का तेज उत्कृष्ट है। आपके नखों में से जो परम उज्ज्वल कांतियुक्त किरणें निकलती हैं, उनसे इन्द्रों के मुकुट की प्रभा आच्छादित हो जाती है। तीर्थंकर भगवान के पद-नख ऐसे सुन्दर होते हैं कि जब मुकुट सहित देवगुण उनके चरणों में झुकते हैं तो उनके मुकुट तीर्थंकर के नखों की शोभा से सुशोभित हो जाते हैं। नख के परमाणु ऐसे सुन्दर परिणमित हुए हैं कि उनसे देवों के मुकुट शोभित होने लगते हैं। हे भगवन् ! आपका पुण्य तो अचिंत्य, अनुपम है ही; उसकी तो क्या बात करें? आपकी पवित्रता भी अतुल्य है, अनुपम है। ____ मुनिगण भक्ति करते हैं कि आपने तो पूर्ण पवित्रता को अन्तर में साध लिया है। पूर्व-पुण्य के कारण तीर्थंकर नामकर्म बँधा और फलस्वरूप अति सुन्दर शरीर प्राप्त हुआ है। तीर्थंकर का शरीर कामदेव के शरीर से विशेष सुन्दर होता है। हे नाथ ! देवेन्द्र तथा उनके मुकुटों को शोभित करनेवाले आपके नख हैं। आपके शरीर की क्या बात ? पवित्रता के साथ पुण्य कैसा होता है, यह आपका शरीर सूचित करता है। यहाँ भगवान की स्तुति की बात करते हैं। हे प्रभु ! आपकी जो पवित्रता अंतरंग शक्ति में व्यक्त हुई है और केवलज्ञान लक्ष्मी प्रगट हुई है, उसकी महिमा तो क्या कहें ? अरे ! तृण समान जो पुण्य का विपाक हुआ, उसके कारण उत्पन्न हुई आपके नखों की शोभा से भी देवों के मस्तक के मुकुट सुशोभित और दैदीप्यमान हो गये। आपके चरणों में नहीं नमें तो किसको नमें? निश्चय से नमना तो अन्तर में है, ज्ञानी के अन्य का तो स्वप्न में भी आश्रय नहीं है। व्यवहार से कहें तो पंचपरमेष्ठी की शरण है और निश्चय से आत्मा का आश्रय है। अब दूसरी बात करते हैं। “हे प्रभो! आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, यह शुभभाव का ऐसा उछाला है कि इसके द्वारा मेरे पापों का नाश हो जाता है। देवगण आपके चरण-कमल की भक्ति से पाप का नाश करते हैं। आप सर्वज्ञ परमात्मा हो, पूर्ण हो, देह-विलय के पश्चात् आप सादि-अनन्त सिद्धदशा में रहेंगे। हे भगवन् ! आपके चरण-कमल भक्तों के पाप का नाश करने में निमित्त हैं। शुभराग उठता है, उससे अशुभ कर्म का बंधन नहीं होता और शुद्धता के भान में तो विशेषतया अशुभ का अभाव ही हो जाता है। आपकी भक्ति के भाव से पाप भाव का नाश होता है, संसाररूपी लता का वंश दीर्घकाल तक नहीं चलता। आपको चैतन्य-चमत्कार की पूर्ण शुद्धदशा प्रगट हुई है। हे नाथ ! आप परम गुरु हो । अठारह कोड़ा-कोड़ी सागर तक भरतक्षेत्र में जुगलिया मनुष्यों का सद्भाव रहा, उससमय मुनिधर्म नहीं था। आप ही इस धर्मयुग के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर हो, आपने ही आद्य धर्म की स्थापना की है। हम धर्म के साधक हैं, आपकी स्तुति से पापवंश नष्ट हो जाता है। अब तक संसार की शृंखला चली, परन्तु अब नहीं चलेगी। भगवान ऋषभदेव तीन ज्ञान लेकर जन्मे थे, जब राजसभा में विराज रहे थे; तब नीलांजना नृत्य कर रही थी, नृत्य करते समय उसकी आयु पूर्ण हो जाने से उसका देह विलय हो गया। रंग में भंग न हो - यह सोचकर इन्द्र ने तत्काल उसके स्थान पर दूसरी देवी खड़ी कर दी, किन्तु भगवान को भान हो गया और भगवान को विचार आया कि अहो ! यह तो वैराग्य प्राप्त करने जैसा प्रसंग है। उसी समय उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया और तुरन्त ही गृहत्यागी होकर नग्न दिगम्बर मुनि हो गये, बाद में केवलज्ञानी परमात्मा बने तथा धर्मदेशना दी। अत: हे नाथ ! आप ही धर्मयुग आद्य प्रवर्तक हो। जब आपकी दिव्यध्वनि खिरी, तब अनेक मुनि हो गये और अनेक सम्यग्दृष्टि श्रावक बन गये तथा जिन्हें योग्यता नहीं थी, उन्होंने मोक्षमार्ग का विरोध किया और उनके द्वारा नरकादि गतियों का भी मार्ग खुल गया। इससे पूर्व सभी जीव स्वर्ग में ही जाते थे, परन्तु जहाँ पूर्ण पवित्रता के कारणभूत धर्म की घोषणा हुई; वहीं उसका विरोध करनेवाले भी पाप-प्रवृत्ति में स्वच्छन्द हो गये, परन्तु उनकी पाप-प्रवृत्ति में निमित्त भगवान नहीं थे। भगवान तो मिथ्यात्व के नाशक ही हैं। आपका उपदेश तो अगाधभव-जलसे तिरने के लिए है। चाहे चक्रवर्ती हो, मनुष्य हो, रागी-विरागी, धनवान-निर्धन-सभीकोभव-समुद्रसेतिरनेमें आपही
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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