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समयसार : संक्षिप्त सार
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ऐसे क्या पाप किए! कारणों की मीमांसा करते हुए मुख्य रूप से यह बताया है कि ज्ञानी अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के रागादिरूप भावास्रवों का अभाव होने से कर्मों का आस्रव और बंध नहीं होता; क्योंकि सम्यग्दर्शन मात्र मोक्ष का ही कारण है, बन्ध का कारण नहीं है। अविरत सम्यग्दृष्टि के अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन के साथ विद्यमान अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायों को उदयजनित जो रागादि भाव होते हैं, उनसे कर्मों का आस्रव व बन्ध होता है, परन्तु उनकी यहाँ गिनती नहीं की गई है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की ऐसी अद्भुत महिमा है कि उसके उत्पन्न होने की भूमिका में बध्यमान कर्मों की स्थिति घटकर अन्तःकोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण हो जाती है। चौथे गुणस्थान में ४१ प्रकृतियों का आस्रव तो रुक ही जाता है तथा जो शेष आस्रव-बंध होता है, उसका कारण सम्यग्दर्शन नहीं, बल्कि सम्यग्दर्शन के साथ रहने वाला रागभाव है।
आस्रवभाव के अभाव में द्रव्यप्रत्ययों को बन्ध नहीं कहा है, क्योंकि बंध का मूल कारण तो भावास्रव है।
यहाँ महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठाया गया है कि जब ज्ञानगुण के जघन्यभाव को बन्ध का कारण कहा तो फिर ज्ञानी निरास्रव कैसे?
समाधान यह है कि यहाँ ज्ञानगुण के जघन्यभाव का अर्थ है मिथ्यात्वसहित अज्ञानभाव अर्थात् मिथ्यात्वादि के उदय में जब ज्ञानदर्शन-गुण रागादिमय हो जाते हैं, तब अज्ञानभाव से परिणत वह ज्ञानदर्शन ही बंध का कारण है। ज्ञानी के उस अज्ञानमय जघन्य भाव का अभाव हो गया है, अतः ज्ञानी के आस्रव नहीं है। ५. संवर तत्त्व : भेदविज्ञान की भावना का सुफल -
भेदज्ञान की भावना से ही शुद्धात्मा की उपलब्धि-आत्मानुभूति होती है और आत्मानुभूति से राग-द्वेष-मोहरूप भावास्रव एवं नवीन द्रव्यकर्मों का निरोध होता है। तथा भावास्रव-द्रव्यास्रव का रुक जाना ही
संवर है।
निश्चय से उपयोग उपयोग में है, क्रोधादि में उपयोग नहीं है और क्रोध-क्रोध में ही हैं, उपयोग क्रोध नहीं है। इसी प्रकार आठ प्रकार के कर्म और नोकर्म में भी उपयोग नहीं है और उपयोग में भी कर्म-नोकर्म नहीं है, क्योंकि उपयोग चैतन्य का परिणाम होने से ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म व शरीरादि नोकर्म है। वे सभी पुद्गल के परिणाम होने से जड़ हैं। अतः उपयोग व क्रोधादि में प्रदेश भिन्न होने से अत्यन्त भेद है । इसप्रकार इनके पारमार्थिक आधार-आधेय सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार ज्ञानी के दर्शन-ज्ञान उपयोग में स्थित होने से मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग रूप आस्रव का अभाव होता है। आस्रव का अभाव होने से कर्मों का निरोध, कर्मों के निरोध से नोकर्मों का निरोध और नोकर्मों के निरोध में संसार का निरोध हो जाता है।'
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ है कि आत्मोपलब्धि में मूल कारण भेदज्ञान ही है। भेदज्ञान भाने की प्रेरणा देते हुए आचार्य अमृतचंद्र ने भी यही कहा है कि भेदज्ञान सदैव भाने योग्य है तथा यह भेदज्ञान अखण्ड रूप से तब तक भाना चाहिए जबतक कि ज्ञान परभावों से छूटकर ज्ञान में प्रतिष्ठित न हो जावे। ६. निर्जरा तत्त्व : ज्ञान-वैराग्य की प्रकट सामर्थ्य - ___ इस अधिकार में पहले तो द्रव्यनिर्जरा व भावनिर्जरा किन जीवों को किसप्रकार होती है - इसका सामान्य वर्णन किया है, पश्चात् ज्ञान और वैराग्य की सामर्थ्य का विस्तृत विवेचन किया है, जिसमें विषय औषधि के रूप में सेवन करने वाले विवेकी वैद्य का और परिस्थितिवश अरुचिपूर्वक मद्यपान करने वाले पुरुष का दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया है - जिसप्रकार विषपान करता हुआ वैद्य मरता नहीं है तथा मद्यपान करते अनासक्त पुरुष को नशा नहीं चढ़ता, ठीक उसीप्रकार जो भेदविज्ञानी अनासक्त भाव से १. समयसार गाथा १८१ से १८३ एवं टीका २. समयसार कलश, १२६ और १३०
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