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________________ १६२ ऐसे क्या पाप किए ! समयसार है और आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादक होने से इस ग्रंथ का ‘समयसार' या ‘समयपाहुड' नाम भी सार्थक है। यह 'समयपाहुड' नाम सीधा द्वादशांग वाणी से सम्बद्ध है, क्योंकि गणधरदेव द्वारा रचित द्वादशांग वाणी के जो चौदह पूर्व रूप प्रभेद हैं, उनमें प्राभृत (पाहुड) नामक एक अवान्तर अधिकार है। उन्हीं पूर्वी का यत्किंचित् ज्ञान आचार्य कुन्दकुन्द को था जो समयपाहुड के रूप में निबद्ध हुआ है। समयपाहुड में आत्मतत्त्व का जैसा प्रतिपादन है, वैसा जैन वाङ्मय में अन्यत्र दुर्लभ है। उसे कुन्दकुन्द ने स्वयं श्रुतकेवली-कथित कहा है। १. जीवाजीवाधिकार : भेदविज्ञान का अधिकार - समयसार परमागम के जीवाजीवाधिकार में भेदविज्ञान का जैसा सूक्ष्मतम विश्लेषण हुआ है, वैसा अन्यत्र विरल है। इसमें शुद्ध जीवपदार्थ का अजीवपदार्थों से भेदज्ञान कराते हुए यहाँ तक कह दिया गया है कि एक निज शुद्धात्मतत्त्व के सिवाय अन्य समस्त परपदार्थ अजीव तत्त्व हैं। जड़-अचेतन पदार्थ तो अजीव हैं ही, अन्य अनंत जीव राशि को भी निज ज्ञायकस्वभाव से भिन्न होने के कारण अजीव तत्त्व कहा गया है। तथा अपने आत्मा में उत्पन्न होने वाले क्षणिक क्रोधादि विकारीभावों तथा मति श्रुतज्ञानादि अपूर्ण पर्यायों को भी अपने त्रिकाल परिपूर्ण ज्ञायक स्वभाव से भिन्न होने के कारण अजीव तत्त्व कहा है। ऐसा जीव नामक शुद्धात्मतत्त्व देह एवं रागादि औपाधिक भावों से भिन्न हैं - यह बात स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचंद ने कहा है कि चैतन्यशक्ति से व्याप्त जिसका सर्वस्व सार है ऐसा यह जीव इतना मात्र ही है । इस चित्शक्ति से अन्य जो भी औपाधिक भाव हैं, वे सब पुद्गलजन्य हैं, अतः पुद्गल ही हैं।' १. समयसार, गाथा ३८ (82) समयसार : संक्षिप्त सार उन पौद्गलिक और पुद्गलजन्य भावों का उल्लेख करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जीव के वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श नहीं है; शरीर, संस्थान, संहनन भी नहीं है; तथा राग, द्वेष, मोह, कर्म व नोकर्म भी नहीं है; वर्ग, वर्गणा और स्पर्धक भी नहीं है, अध्यात्म के स्थान, अनुभाग के स्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, जीवस्थान आदि कुछ भी नहीं है; क्योंकि ये सब तो पुद्गलद्रव्य के परिणाम होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। जीव तो परमार्थ से चैतन्यशक्तिमात्र है। गुणस्थानादि को यद्यपि व्यवहार से जीव कहा गया है, पर वे सब वस्तुतः ज्ञायकस्वभाव से भिन्न होने से जीव के भाव ही नहीं है और जीवस्वरूप भी नहीं है। आचार्य अमृतचंद्र ने भी इसी बात पर अपनी मुहर (छाप) लगाते हुए कहा है कि वर्णादिक व रागादिक भाव आत्मा से भिन्न हैं, इसलिए अन्तर्दृष्टि से देखने वाले को ये सब दिखाई नहीं देते। उसे तो मात्र एक चैतन्यभावस्वरूप सर्वोपरि आत्मतत्त्व ही दिखाई देता है। जीव का वास्तविक लक्षण तो चेतनामात्र है। अस्ति से कहें तो वह ज्ञान-दर्शनमय है और नास्ति से कहें तो वह अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्शी है। यह जीव पुद्गल के आकार रूप नहीं होता, अतः उसे निराकार व अलिंगग्रहण कहा जाता है। परन्तु आत्मा के ऐसे स्वभाव को न जानने वाले, पर का संयोग देखकर आत्मा से भिन्न परपदार्थों व परभावों को ही आत्मा मानते हैं। इस कारण कोई राग-द्वेष को, कोई कर्मफल को, कोई शरीर को और कोई अध्यवसानादि भावों को ही जीव मानते हैं। जबकि वस्तुतः ये सब जीव नहीं है, क्योंकि ये सब तो कर्मरूप पुद्गलद्रव्य के निमित्त से होनेवाले या तो संयोगीभाव हैं या संयोग है, अतः अजीव है। १. समयसार, गाथा ५० से ५५ ३. समयसार गाथा ३६ से ४३ २. समयसार, कलश ३६ ४. समयसार, गाथा ३८ १६३
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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