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ऐसे क्या पाप किए !
एक बात का मुझे बार-बार विचार आता है कि न केवल भगवान महावीरस्वामी, बल्कि वर्तमान चौबीसी के सभी तीर्थंकर जब क्षत्रियवर्ण के थे और भगवान महावीरस्वामी के प्रमुख गणधर गौतम स्वामी भी ब्राह्मणवर्ण के थे; तो फिर भी उनके द्वारा प्रचारित-प्रसारित यह जैनधर्म जैसी अनुपमनिधि वणिकों के हाथ कैसे लगी ? अधिकांश वणिकवर्ण ने ही इसे क्यों अपनाया ?
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अस्तु, कारण कुछ भी हो, पर वणिकबुद्धि की दाद तो देनी ही पड़ेगी; क्योंकि असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य कर्मों में तो वणिकवर्ग ने वाणिज्य को चुनकर अपनी विशेष बुद्धि का परिचय दिया ही है, भगवान महावीर की देशना को धारण कर अन्तर के लक्ष सों अयाचीक लक्षपति बनने का काम भी इन्होंने ही किया है।
अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह के साथ-साथ जिसमें आत्मशान्ति के और जनकल्याणक के अद्भुत सिद्धान्त हैं- ऐसी महावीर की दिव्यदेशना को अपनाकर वणिक वर्ग ने अपना मानव जन्म सार्थक करने का अमोघ उपाय अपनाया है।
बस, इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि जिस वस्तु को या जिस कर्म एवं धर्म को इस वैश्यवर्ग ने अपनाया होगा, वह लाभदायक तो होगा ही, सुखद भी होगा; क्योंकि वणिक घाटे का सौदा कभी नहीं करते । वैश्यों की इसी वणिकबुद्धि ने वर्ण व जाति की परवाह न करके भगवान महावीर और गौतम गणधर द्वारा निरूपित जैनदर्शन को अपना लिया होगा। उन्होंने न केवल इसे अपनाया; बल्कि इसके तल तक पहुँचने के लिए इसे निरन्तर अध्ययन, मनन एवं चिन्तन का विषय भी
बनाया ।
इन वर्णों की स्थापना के समय इनमें कोई छोटे-बड़े जैसा भेदभाव नहीं था। सभी वर्ण समान देखे जाते थे; परन्तु धीरे-धीरे व्यक्तियों की बौद्धिक प्रतिभा और काम करने की क्षमता एवं योग्यता के अनुसार इन
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भगवान महावीर के विश्वव्यापी संदेश
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वर्णों में सहज ही छोटे-बड़े का व्यवहार बन गया, जो स्वाभाविक ही था; प्रथम श्रेणी और चतुर्थ श्रेणी में जो अन्तर है, वह तो रहेगा ही, उस अन्तर को कौन मिटा सकता है?
जैनदर्शन में श्रद्धा रखनेवाले जैन पुराणों के अध्येता तो यह सब जानते ही हैं, मानते ही हैं कि जैनधर्म अनादि-निधन है। इस अनादि-निधन सृष्टि में तीर्थंकरों की अनेक चौबीसियाँ हो चुकी हैं और आगे भी होंगी। उन्हीं में भगवान महावीर वर्तमान चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर हैं। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को उन्हीं भगवान महावीरस्वामी का जन्मकल्याणक दिवस, जिसे आज महावीर जयन्ती नाम से जाना जाता है, समस्त देश एवं विदेशों में भी बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है।
वस्तुतः जयन्ती और जन्मकल्याणक में बहुत बड़ा अन्तर है। जयन्तियाँ तो पुनर्जन्म लेनेवाले बड़े लोगों की भी मनाई जाती हैं, जबकि जन्मकल्याणक उन्हीं का मनाया जाता है, जिन्होंने जन्म-मरण का नाश कर सिद्धपद प्राप्त कर लिया है।
यद्यपि आज भगवान महावीर यहाँ नहीं हैं; परन्तु उनकी वह दिव्यदेशना आज यहाँ द्वादशांग के सार के रूप में मौजूद है। इसका भरपूर लाभ हमें मिल सकता है, मिल रहा है। उसको पढ़ने / समझने की पात्रता तो हममें हैं। बस, थोड़ी रुचि की जरूरत है।
‘जैनधर्म’ किसी पंथ विशेष का नाम नहीं है। किसी व्यक्ति विशेष के कुछ सिद्धान्तों या मान्यताओं का नाम भी 'जैनधर्म' नहीं है। किसी तीर्थंकर विशेष ने इसे चलाया नहीं है, वस्तुतः 'जैनधर्म' उस वस्तुस्वरूप का नाम है, जो अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। जिसप्रकार अग्नि का स्वभाव उष्णता है, पानी का स्वभाव शीतलता है, उसीप्रकार आत्मा का स्वभावमात्र ज्ञान है, क्षमा है, सरलता है, ये आत्मा के धर्म हैं । अज्ञान, काम, क्रोध, मद, मोह, क्षोभ, हिंसा, असत्य आदि आत्मा के स्वभाव नहीं, विभाव हैं, विकारी भाव हैं। अतः ये अधर्म हैं।