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________________ १५० भगवान महावीर के विश्वव्यापी संदेश ऐसे क्या पाप किए! देनेवाले उनके प्रमुख शिष्य गणधर ब्राह्मण थे और इसे धारण करनेवाले अधिकांश व्यक्ति वणिक हैं। यह बात केवल भगवान महावीर के गणधर गौतम स्वामी के संदर्भ में ही लेना अन्य के नहीं, क्योंकि सभी तीर्थंकरों के गणधरों के ब्राह्मण ही थे - ऐसा नहीं है। अतः किसी व्यक्ति विशेष के कुछ सिद्धान्तों या मान्यताओं का नाम जैनधर्म नहीं है। इसे किसी तीर्थंकर विशेष ने बनाया नहीं है, मात्र बताया है। वस्तुतः 'जैनधर्म' उस वस्तुस्वरूप का नाम है, जो अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। जिसप्रकार अग्नि का स्वभाव उष्णता है, पानी का स्वभाव शीतलता है, उसीप्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञान है, क्षमा है, सरलता आदि है। अज्ञान, काम, क्रोध, मद, मोह, क्षोभ, हिंसा, असत्य आदि आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है, विकारी भाव हैं; अतः ये अधर्म हैं। उत्तम क्षमा, हृदय की सरलता, सत्य, शौच, संयम, तप-त्याग-आकिंचन और अहिंसा आदि आत्मा के स्वभाव भाव हैं, अतः ये धर्म हैं। आत्मा के उपर्युक्त स्वभाव और विभाव को जाने-पहचाने बिना उस स्वभाव की प्राप्ति और विभावों का अभाव होना संभव नहीं है। इस संदर्भ में महाकवि तुलसीदासजी का निम्नांकित कथन दृष्टव्य है - "संग्रहत्याग न बिनु पहचाने।" कविवर दौलतरामजी भी यही कहते हैं - “बिन जाने तें दोष गुनन को कैसे तजिए गहिए?" आत्मा के इस स्वभाव को जानना-पहचानना ही सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और यही मुक्ति का मार्ग है। ___इस आत्मज्ञान के साथ वीतरागता एवं समताभाव प्राप्त करने के लिए स्व-संचालित विश्वव्यवस्था समझना भी अति आवश्यक है। इसके समझने से ही हमारा अन्तर्द्वन्द्व और बाहर का संघर्ष समाप्त हो सकता है। हम निश्चिंत और निर्भार होकर अन्तर आत्मा का ध्यान कर सकते हैं, जो हमें पुण्य-पापरूप कर्म बन्धन से मुक्त कराकर वीतराग धर्म की प्राप्ति करा सकता है। एतदर्थ भगवान महावीर की देशना का रहस्य जिनागम के अध्ययन से हम सब जानें इसी में हम सबका भला है। एक बार महर्षि व्यास के पास उनके कुछ भक्त संक्षेप में धर्म का मर्म जानने के लिए पहुँचे और उनसे निवेदन करने लगे - “महाराज! आपने जो अठारह पुराण बनाये हैं। एक तो वह संस्कृत भाषा में हैं और दूसरे मोटे-मोटे पोथन्ने हैं! इन्हें पढ़ने का न तो हमारे पास समय ही है और न हम संस्कृत भाषा ही जानते हैं। हम तो अच्छी तरह से हिन्दी भी नहीं जानते । अतः हमें तो आप हमारे हित की बात संक्षेप में बता दीजिए। उनकी बात सुनकर महाकवि व्यास बोले - __ "भाई! ये अठारह पुराण हमने तुम जैसों के लिए नही बनाये हैं, तुम्हारे लिए तो मात्र इतना ही जानना पर्याप्त है - "अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।। अठारह पुराणों में सार रूप में मात्र यही दो बातें कहीं हैं कि यदि परोपकार करोगे तो पुण्य होगा और पर को पीड़ा पहुँचाओगे तो पाप होगा। मात्र इतना जान लो, इतना मान लो और सच्चे हृदय से जीवन में अपना लो - तुम्हारा जीवन सार्थक हो जायेगा।" ___ मानों इसीप्रकार भगवान महावीर के भक्त भी उनके पास पहुँचे और कहने लगे कि भगवन! महर्षि व्यास ने तो अपने शिष्यों को अठारह पुराणों का सार दो पंक्तियों में बता दिया; आप भी हमें जैनदर्शन का सार दो पंक्तियों में बता दीजिए; हमें भी ये प्राकृत-संस्कृत में लिखे मोटे-मोटे ग्रन्थराज समयसार, गोम्मटसार आदि पढ़ने की फुर्सत कहाँ हैं? दिनभर धंधे में चला जाता है और रात में टैक्सों के चक्कर में नं. एक और नं. दो का हिसाब-किताब जमाना पड़ता है। (76)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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