________________
१२४
भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान
ऐसे क्या पाप किए! 'अहिंसा के व्यापक क्षेत्र में शामिल है; क्योंकि झूठ, चोरी आदि से भी दूसरों के प्राण पीड़ित होते हैं। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने झूठ, चोरी, कुशील और विषयभोग की सामग्री के अनुचित संग्रह को भी हिंसा पाप में ही सम्मिलित करके इनके त्याग को अहिंसा का व्यापक स्वरूप दर्शाया है।
अब हमें देखना यह है कि - जैनधर्म के कौन-कौन से सिद्धान्तों का, संस्कृतियों और परम्पराओं का सम्पूर्ण भारतीय समाज को क्या-क्या प्रदेय रहा है तथा वर्तमान परिस्थितियों में किन माध्यमों से किन सिद्धान्तों से और क्या योगदान हो सकता है?
राजनैतिक प्रदेय - हम इस अवसर पर भारत के उस आजादी के इतिहास को स्मरण करें, जिसमें एकमात्र अहिंसा ने यह कमाल कर दिया। महात्मा गाँधी ने जिस अहिंसा के अस्त्र से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये, वह अहिंसा जैनधर्म की ही अहिंसा है, जिसमें कहा गया था कि हमें गोली का जवाब गाली से भी नहीं देना है। __इसतरह हम देखते हैं कि महात्मा गाँधी की वह अहिंसा और जवाहरलाल नेहरू के वे पंचशील सिद्धान्त और महामना मदनमोहन मालवीय का वह नारा, जिसमें कहा गया था कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ये सब किसी न किसी रूप में जैनधर्म के ही प्रदेय हैं।
जैनधर्म में तो यहाँ तक कहा गया है कि स्वतंत्रता हमारा अनादिसिद्ध अधिकार है। जैनधर्म न केवल नर से नारायण बनानेवाला दर्शन है; बल्कि यह तो पशु से परमात्मा बनानेवाला दर्शन है। यह तो यह कहता है कि स्वभाव से तो हम सभी कारण परमात्मा हैं ही, यदि अपनी शक्ति को, अपने स्वभाव को जान ले, पहचान ले तो हम प्रगट पर्याय में भी परमात्मा बन सकते हैं। भगवान पार्श्वनाथ ने परमात्मा बनने की प्रक्रिया हाथी की पर्याय में प्रारम्भ की थी और भगवान महावीर ने सिंह की पर्याय में।
साहित्यिक प्रदेय - किसी भी संस्कृति, सभ्यता और सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार करने का सर्वाधिक प्रबल साधन उसका सत्साहित्य होता है। जैनधर्म का भी आचार्यों द्वारा प्रणीत अनेक भाषाओं में प्रचुर सत्साहित्य उपलब्ध है और समय-समय पर वह विस्तृत टीकाओं, व्याख्याओं के साथ प्रकाशित भी होता रहता है, वर्तमान विद्वानों द्वारा लिखे गये मौलिक सत्साहित्य द्वारा भी जैन सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार होता रहता है। यही कारण है कि प्रबुद्ध जैनेतर पाठक वर्ग भी जैन सिद्धान्तों का, जैनाचार विचारों की ओर इसके व्यवहारिक पक्ष का हृदय से प्रशंसक रहा है। तथा यथासंभव अपने आचरण में लाने का प्रयास भी करता है।
कोई कह सकता है कि वर्तमान के भौतिकवादी, भोगवादी इस अर्थप्रधान हिंसक युग में क्या हआ आपके उन सिद्धान्तों का? आज जैनेतरों की तो बात ही क्या कहें जैन भी हिंसा और परिग्रह की पराकाष्ठा का उल्लंघन करते पाये जा रहे हैं? उनसे हम एक कहानी के माध्यम से मात्र इतना कहना चाहते हैं कि - एक बार बड़वाग्नि से समुद्र अकड़ कर बोला - 'तू मेरे भीतर अनादिकाल से जल रही है, पर क्या बिगाड़ लिया तूने मेरा? मैं तो तेरी छाती पर वैसा ही लवालव भरा हुआ अपने ज्वारभाटों द्वारा अठखेलियाँ कर रहा हूँ?'
बड़वाग्नि ने विनम्रभाव से कहा - जिसके ऊपर समुद्रों पानी पड़ा हो; फिर भी जो अनादि से अपने अस्तित्व को कायम रखकर उस अथाह
और अपार समुद्र की नाक में नकेल डालकर उसपर नियंत्रण कर रही हो; उसे अपनी मर्यादा में रखें हो, मर्यादा का उल्लंघन न करने दे रही हो, उसके अस्तित्व और शक्ति के लिए यह क्या कम है?
ठीक इसीप्रकार इस भौतिकवादी, भोगवादी और अर्थप्रधान युग में भी जैनधर्म अपना अस्तित्व कायम किए हुए हैं और करोड़ों व्यक्तियों को अपने आचार-विचार और अहिंसा आदि के सिद्धान्तों से नियंत्रित किये रहता है, उसके प्रदेय के लिए यह क्या कम है।
(63)