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ऐसे क्या पाप किए ! जम जाने, समा जाने में हैं। साथ ही साथ अविनाभावी रूप से रहने वाला बाह्याचार भी उसमें आता ही है।
परिभाषाएँ तो हम से भी कहीं अधिक अच्छी टेप रिकार्ड भी सुना सकता है तो क्या वह भी धर्मात्मा हो जाता है? उसमें आत्मा है ही कहाँ जो धर्मात्मा कहलाये ?
दूसरी ओर जो मिथ्यादृष्टि ग्यारह अंग के पाठी तक होते हैं, क्या उन्हें ये सब परिभाषाएँ नहीं आती होगी? क्यों नहीं, अवश्य आती हैं। तो फिर आत्मानुभूति के बिना वे कोरे के कोरे क्यों रह जाते हैं? उन्हें धर्म लाभ क्यों नहीं होता? इससे भी स्पष्ट है कि धर्म परिभाषाओं में नहीं, प्रयोग में है और उसका आरम्भ आत्मानुभव से होता है।
भगवान महावीर के जीव ने सिंह की पर्याय में परिभाषाएँ नहीं रटी थीं, न उसे कोई भाषण देना ही आता था; किन्तु मुनिराज का सम्बोधन प्राप्त कर भेदविज्ञान हो गया था, भेदविज्ञान होते ही आत्मानुभूति हो गई और जीवन में धर्म का शुभारम्भ हो गया; बारम्बार वस्तु स्वरूप का विचार किया। मन में क्षणभर को विश्रान्ति पाकर अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव किया। बनारसीदासजी के शब्दों में कहें तो -
" वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावे विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजे, अनुभव ताको नाम ।। "
ऐसा अनुभव करते हुए उसे कालान्तर में संसार - शरीर और भोगों से भी विरक्ति भी हुई, फिर क्या था मांसाहार का त्यागकर व सूखे पत्तों को खाकर और झरने का प्रासुक जल पीकर अनुभव के रस में झूलता हुआ अपना शेष जीवन बिताने लगा। ऐसे अनुभव की महिमा का वर्णन करते हुए पं. बनारसीदासजी स्वयं लिखते हैं
"अनुभव चिन्तामणि रतन, अनुभव है रसकूप । अनुभव मारग मोक्ष को, अनुभव मोक्ष स्वरूप ।।”
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धर्म परिभाषा नहीं प्रयोग है
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इसका अर्थ यह न लगाना चाहिए कि परिभाषाएँ सीखना निरर्थक हैं या शास्त्राभ्यास व्यर्थ बताया जा रहा है, राजमार्ग तो यही है कि पहले हम शास्त्रानुसार अभ्यास करके निर्णय करें, फिर आत्मानुसार उसे जीवन में उतारें, क्योंकि -
"आतम-अनात्म के ज्ञानहीन, जे-जे करनी तन करण क्षीण । " भेदविज्ञान के बिना सारा श्रम व्यर्थ है।
एक आत्मानुभूति और आत्मध्यान के सिवाय पण्डित दौलतराम सब क्रियाओं को द्वंद - फंद कहते हैं। जगत के विषय कषाय, धंधाव्यापार, राजनीति की उठा-पटक तो दंद फंद है ही, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बुद्धि का व्यायाम भी दंद- फंद मानते हैं। तभी तो निज आत्मा के ध्यान की प्रेरणा देते हैं। अतः स्पष्ट है कि 'धर्म परिभाषा नहीं प्रयोग है।'
प्रयोग से मेरा अभिप्राय कोई बाह्य व्रत-त्याग या किसी वेश- विशेष के धारण कर लेने से भी नहीं हैं, ये सब अपनी भूमिकानुसार यथा अवसर आते ही हैं। यहाँ तो इतना प्रयोजन जानना कि जिनवाणी अनुसार सीखा है, परस्पर चर्चा परिचर्या का विषय बनाया है तदनुसार उसकी प्रतीत व अनुभूति भी हो, वैसा ही हमें एहसास भी हो, हम वैसा महसूस भी करें, तद्रूप वैसा ही आंशिक परिणमन भी हो ।
जैसे कि हम शास्त्रानुसार यह जानते हैं कि “एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्त्ता नहीं। हानि-लाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण सब स्वयंकृत कर्मों का ही फल है।" इस शास्त्र ज्ञान के चिन्तन-मनन द्वारा आत्मा में समता और धैर्य धारण करें। प्रतिकूलता में आकुल-व्याकुल न हों।
अमितगति आचार्यकृत सामायिक पाठ में कहा भी है"स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते। करें आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते ।। अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी । पर देता है यह विचार तज, स्थिर हो छोड़ प्रमाद बुद्धि ।। "