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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और आचार्य अमृतचन्द्र लोकेषणा से दूर रहनेवाले वनवासी निरीह-नि:स्पृह, साधु-सन्तों का स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि वे केवल आत्मा-परमात्मा का ही चिन्तन-मनन एवं उसी की चर्चा-वार्ता करते हैं, अन्य लौकिक वार्ता से एवं व्यक्तिगत बातों से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता। यदि लिखने-पढ़ने का विकल्प आता है तो केवल वीतराग वाणी को लिखने-पढ़ने का ही आता है। अत: उनसे स्वयं के जीवन-परिचय के विषय में कुछ कहनेसुनने या लिखने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। __ वस्तुतः तो आचार्य अमृतचन्द्र का कर्तृत्व ही उनका परिचय है और सौभाग्य से आज का स्वाध्यायी समाज उनके कर्तृत्व से अपरिचित नहीं रहा। एक साधु का इससे अधिक और परिचय हो भी क्या सकता है ? न उनका कोई गाँव होता है, न ठाँव, न कोई कुटुम्ब होता है, न परिवार । उनके व्यक्तित्व का निर्माण उनकी तीव्रतम आध्यात्मिक रुचि, निर्मल वीतराग परिणति एवं जगतजनों के उद्धार की वात्सल्यमयी पावन भावना से ही होता है, जो उनके साहित्य में पग-पग पर प्रस्फुटित हुई है।
जब उनमें मोह-मग्न विश्व के प्रति वात्सल्यभाव जागृत होता है, तो वे करुणा से विगलित हो कहने लगते हैं -
"त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीढं।
रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।।२२ ।।"१ हे जगत के जीवो ! अनादिकालीन मोह-मग्नता को छोड़ो और रसिकजनों को रुचिकर उदीयमान ज्ञान का आस्वादन करो। तथा -
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और आचार्य अमृतचन्द्र
"मजन्तु निर्भरममी सममेव लोकः, आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ता । आप्लाव्य विभ्रम तिरस्करणी भरण
प्रोन्मग्न एव भगवानवबोधसिन्धुः।।३३ ।।' यह ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा भ्रमरूप चादर को समूलरूप से हटाकर सर्वांग से प्रगट हुआ है, अत: अब समस्त लोक उस शान्तरस में पूरी तरह निमग्न हो जाओ, उसी में बारम्बार गोते लगाओ।
और भी देखिए, वे समयसार कलश २३ में आत्महित में प्रवृत्त होने की प्रेरणा कितने कोमल शब्दों में दे रहे हैं -
अयि कथमपि मृत्वा तत्त्व कौतूहली सन्
अनुभवभवमूर्ते पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्......।। अरे भाई ! तू किसी भी तरह मरकर भी अर्थात् महाकष्ट उठाना पड़े तो भी, तत्त्व का कौतूहली हो जा और केवल दो घड़ी के लिए ही सही इस शरीर का भी पड़ौसी बनकर आत्मा का अनुभव कर ! तेरे सब दुःख दूर हो जायेंगे।"
मानो, उनके मनके विकल्प रुकते नहीं है, तो वे अपने ही मन को समझाने लगते हैं -
अलमलमिति जल्पैदुर्विकल्पैरनकल्पै
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्य मेकः ।। बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ और एकमात्र परमार्थ का ही निरन्तर अनुभव करो, क्योंकि समयसार के सिवाय दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है।
आचार्य कुन्दकुन्द के कंचन को कुन्दन बनानेवाले एकमात्र आचार्य अमृतचन्द्र ही हैं, जिन्होंने एक हजार वर्ष बाद उनके ग्रन्थों पर रहस्योद्घाटक बेजोड़ टीकायें लिखकर उनकी गरिमा को जगत के सामने रखा।
१. समयसार कलश-२२
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१. समयसार कलश- २३
२. समयसार कलश- २४४