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ऐसे क्या पाप किए!
समाधि-साधना और सिद्धि
अतः हमें मरण सुधारने के बजाय जीवन सुधारने का प्रयत्न करना होगा। ___ मृत्यु को अमृत महोत्सव बनाने वाला मरणोन्मुख व्यक्ति तो जीवनभर के तत्त्वाभ्यास के बल पर मानसिकरूप से अपने आत्मा के अजरअमर-अनादि-अनंत, नित्यविज्ञान घन व अतीन्द्रिय आनन्द स्वरूप के चिन्तन-मनन द्वारा देह से देहान्तर होने की क्रिया को सहज भाव से स्वीकार करके चिर विदाई के लिए तैयार होता है। साथ ही चिर विदाई देने वाले कुटुम्ब-परिवार के विवेकी व्यक्ति भी बाहर से वैसा ही वैराग्यप्रद वातावरण बनाते हैं तब कहीं वह मृत्यु अमृत महोत्सव बन पाती है।
कभी-कभी अज्ञानवश मोह में मूर्च्छित हो परिजन-पुरजन अपने प्रियजनों को मरणासन्न देखकर या मरण की संभावना से भी रोने लगते हैं, इससे मरणासन्न व्यक्ति के परिणामों में संक्लेश होने की संभावना बढ़ जाती है अतः ऐसे वातावरण से उसे दूर ही रखना चाहिए।
शंका :- जब मृत्यु के समय कान में णमोकार मंत्र सुनने-सुनाने मात्र से मृत्यु महोत्सव बन जाती है, तो फिर जीवनभर तत्त्वाभ्यास की क्या जरूरत है? जैसा कि जीवन्धर चरित्र में आई कथा से स्पष्ट है। उस कथा में तो साफ-साफ लिखा है - “महाराज सत्यन्धर के पुत्र जीवन्धर कुमार के द्वारा एक मरणासन्न कुत्ते के कान में णमोकार मंत्र सुनाया था, जिसके फलस्वरूप वह कुत्ता स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों का धारक देव बना।"
समाधान :- यह पौराणिक कथा अपनी जगह पूर्ण सत्य है, पर इसके यथार्थ अभिप्राय व प्रयोजन को समझने के लिए प्रथमानुयोग की कथन पद्धति को समझना होगा। एतदर्थ पण्डित टोडरमल कृत मोक्षमार्ग प्रकाशक का निम्नकथन दृष्टव्य है।
“जिसप्रकार किसी ने नमस्कार मंत्र का स्मरण किया व अन्य धर्म साधन किया, उसके कष्ट दूर हुए, अतिशय प्रगट हुए; वहाँ उन्हीं का वैसा फल नहीं हुआ; परन्तु अन्य किसी कर्म के उदय से वैसे कार्य हुए; तथापि उनको मंत्र स्मरणादि का फल ही निरूपित करते हैं।....." ___यदि उपर्युक्त प्रश्न को हम पण्डित टोडरमल के प्रस्तुत कथन के संदर्भ में देखें तो उस कुत्ते को न केवल णमोकार मंत्र के शब्द कान में पड़ने से स्वर्ग की प्राप्ति हुई; बल्कि उस समय उसकी कषायें भी मंद रहीं होंगी, परिणाम विशुद्ध रहे होंगे, निश्चित ही वह जीव अपने पूर्वभवों में धार्मिक संस्कारों से युक्त रहा होगा। परन्तु प्रथमानुयोग की शैली के अनुसार णमोकार महामंत्र द्वारा पंचपरमेष्ठी के स्मरण कराने की प्रेरणा देने के प्रयोजन से उसकी स्वर्ग प्राप्ति को णमोकार मंत्र श्रवण का फल निरूपित किया गया है, जो सर्वथा उचित ही है और प्रयोजन की दृष्टि से पूर्ण सत्य है। जिनवाणी के सभी कथन शब्दार्थ की मुख्यता से नहीं, वरन भावार्थ या अभिप्राय की मुख्यता से किए जाते हैं। अतः शब्द म्लेछ न होकर उनका अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए, अभिधेयार्थ ही ग्रहण करना चाहिए।
यद्यपि लोकदृष्टि से लोक विरुद्ध होने से तत्त्वज्ञानियों के भी आंशिक राग का सद्भाव होने से तथा चिर वियोग का प्रसंग होने से मृत्यु को अन्य उत्सवों की भाँति खुशियों के रूप में तो नहीं मनाया जा सकता, पर तत्त्वज्ञानियों द्वारा विवेक के स्तर पर राग से ऊपर उठकर मृत्यु को अमृत महोत्सव जैसा महसूस तो किया ही जा सकता है।
यद्यपि सन्यास, समाधि व सल्लेखना एक पर्याय के रूप में ही प्रसिद्ध हैं, परन्तु सन्यास समाधि की पृष्ठभूमि है, पात्रता है। सन्यास संसार, शरीर व भोगों से विरक्तता है और समाधि समताभाव रूप कषाय रहित शान्त परिणामों का नाम है तथा सल्लेखना जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जो दो शब्दों से मिलकर बना है। सत् + लेखना = सल्लेखना । इसका अर्थ होता है - सम्यक् प्रकार से काय एवं कषायों को कृश करना।
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