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________________ ऐसे क्या पाप किए ! सहज प्राप्त हो गये हैं। तो क्यों न हम अपने इस इन अमूल्य क्षणों का सदुपयोग कर लें। अपने इस अमूल्य समय को विकथाओं में व्यर्थ बरबाद करना कोई बुद्धिमानी नहीं है। इस संदर्भ में भूधरकवि कृत निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं - जोई दिन कटै, सोई आयु में अवश्य घटै; बूँद-बूँद बीते, जैसे अंजुलि को जल है । देह नित छीन होत, नैन तेजहीन होत; जीवन मलीन होत, छीन होत बल है । आवै जरा नेरी, तकै अंतक अहेरी; आबै परभौ नजीक, जात नरभौ निफल है । मिलकै मिलापी जन, पूछत कुशल मेरी; ऐसी दशा मांहि, मित्र काहे की कुशल है । इसप्रकार हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि तत्त्वज्ञान के बिना आत्मज्ञान के बिना संसार में कोई सुखी नहीं है, अज्ञानी न तो समता, शान्ति व सुखपूर्वक जीवित ही रह सकता है और न समाधिमरण पूर्वक मर ही सकता है। ९४ अतः हमें आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत दोतीन प्रमुख सिद्धान्तों को समझना अति आवश्यक है। एक तो यह कि - भाग्य से अधिक और समय से पहले किसी को कभी कुछ नहीं मिलता और दूसरा यह कि न तो हम किसी के सुख-दुःख के दाता हैं, भलेबुरे के कर्त्ता हैं और न कोई हमें भी सुख-दुःख दे सकता है, हमारा भला-बुरा कर सकता है। किसी कवि ने कहा है - तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यः, भाग्यात् परं नैव ददाति किंचित् । अहिर्निशं वर्षति वारिवाह तथापि पत्र त्रितयः पलाशः ।। (48) समाधि-साधना और सिद्धि राजा सेवक पर कितना ही प्रसन्न क्यों न हो जाये; पर वह सेवक को उसके भाग्य से अधिक धन नहीं दे सकता। दिन-रात पानी क्यों न बरसे, तो भी ढाक की टहनी में तीन से अधिक पत्ते नहीं निकलते । यह पहला सिद्धान्त निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध की अपेक्षा है। इसका आधार जैनदर्शन की कर्म व्यवस्था है। दूसरा सिद्धान्त 'वस्तु स्वातंत्र्य' का सिद्धान्त है जो कि जैनदर्शन का प्राण है। इसके अनुसार 'जगत का प्रत्येक वस्तु स्वभाव से ही स्वतंत्ररूप से परिणमनशील है, पूर्ण स्वावलम्बी है। ९५ जब तक यह जीव इस वस्तुस्वातंत्र्य के इस सिद्धांत को नहीं समझेगा और क्रोधादि विभाव भावों को ही अपना स्वभाव मानता रहेगा; अपने को पर का और पर को अपना कर्त्ता-धर्त्ता मानता रहेगा तबतक समता एवं समाधि का प्राप्त होना संभव नहीं है। देखो, “लोक के प्रत्येक पदार्थ पूर्ण स्वतंत्र और स्वावलम्बी हैं। कोई भी द्रव्य किसी परद्रव्य के आधीन नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्त्ता - भोक्ता भी नहीं है।” ऐसी श्रद्धा एवं समझ से ही समता आती है, कषायें कम होती है, राग-द्वेष का अभाव होता है। बस, इसीप्रकार के श्रद्धानज्ञान व आचरण से आत्मा निष्कसाय होकर समाधिमय जीवन जी सकता है। यहाँ कोई व्यक्ति झुंझलाकर कह सकता है कि - समाधि... समाधि... समाधि...? अभी से इस समाधि की चर्चा का क्या काम ? यह तो मरण समय धारण करने की वस्तु है न? अभी तो इसकी चर्चा शादी के प्रसंग पर मौत की ध्वनि बजाने जैसी अपशकुन की बात है न ? नहीं भाई! ऐसी बात नहीं है, तुम्हें सुनने व समझने में भ्रम हो गया है, समाधि व समाधिमरण- दोनों बिल्कुल अलग-अलग विषय हैं। जब समाधि की बात चले तो उसे मरण से न जोड़ा जाय। मरते समय तो
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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