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________________ समाधि-साधना और सिद्धि समाधि-साधना और सिद्धि सन्यास और समाधि है जीना सिखाने की कला। बोधि-समाधि साधना शिवपंथ पाने की कला ।। सल्लेखना कमजोर करती काय और कषाय को। निर्भीक और निःशंक कर उत्सव बनाती मृत्यु को।। मरण और समाधिमरण - दोनों मानव के अन्तकाल की बिल्कुल भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। यदि एक पूर्व हैं तो दूसरा पश्चिम, एक अनन्त दुःखमय और दुःखद है तो दूसरा असीम सुखमय व सुखद । मरण की दुःखद स्थिति से सारा जगत सु-परिचित तो है ही, भुक्त-भोगी भी है। पर समाधिमरण की सुखानुभूति का सौभाग्य विरलों को ही मिलता है, मिल पाता है। आत्मा की अमरता से अनभिज्ञ अज्ञजनों की दृष्टि में 'मरण' सर्वाधिक दुःखद, अप्रिय, अनिष्ट व अशुभ प्रसंग के रूप में ही मान्य रहा है। उनके लिए 'मरण' एक ऐसी अनहोनी अघट घटना है, जिसकी कल्पना मात्र से अज्ञानियों का कलेजा काँपने लगता है, कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है, हाथपाँव फूलने लगते हैं। उन्हें ऐसा लगने लगता है मानों उन पर कोई ऐसा अप्रत्याशित-अकस्मात अनभ्र वज्रपात होनेवाला है, जो उनका सर्वनाश कर देगा; उन्हें नेस्तनाबूत कर देगा, उनका अस्तित्व ही समाप्त कर देगा। समस्त सम्बन्ध और इष्ट संयोग अनन्तकाल के लिए वियोग में बदल जायेंगे। ऐसी स्थिति में उनका 'मरण' 'समाधिमरण' में परिणत कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। जब चारित्रमोहवश या अन्तर्मुखी पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण आत्मा की अमरता से सुपरिचित-सम्यग्दृष्टि-विज्ञजन भी 'मरणभय' से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रह पाते, उन्हें भी समय-समय पर इष्ट वियोग के विकल्प सताये बिना नहीं रहते । ऐसी स्थिति में देह-जीव को एक मानने वाले मोही-बहिरात्माओं की तो बात ही क्या है? उनका प्रभावित होना व भयभीत होना तो स्वाभाविक ही है। ___ मरणकाल में चारित्रमोह के कारण यद्यपि ज्ञानी के तथा अज्ञानी के बाह्य व्यवहार में अधिकांश कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता, दोनों को एक जैसा रोते-बिलखते, दुःखी होते भी देखा जा सकता है; फिर भी आत्मज्ञानी-सम्यग्दृष्टि व अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि के मृत्युभय में जमीनआसमान का अन्तर होता है; क्योंकि दोनों की श्रद्धा में भी जमीनआसमान जैसा ही महान अन्तर आ जाता है। ___ स्व-पर के भेदज्ञान से शून्य अज्ञानी मरणकाल में अत्यन्त संक्लेशमय परिणामों से प्राण छोड़ने के कारण नरकादि गतियों में जाकर असीम दुःख भोगता है; वहीं ज्ञानी मरणकाल में वस्तुस्वरूप के चिन्तन से साम्यभावपूर्वक देह विसर्जित करके 'मरण' को 'समाधिमरण' में अथवा मृत्यु को महोत्सव में परिणत कर स्वर्गादि उत्तमगति को प्राप्त करता है। ____ यदि दूरदृष्टि से विचार किया जाय तो मृत्यु जैसा मित्र अन्य कोई नहीं है, जो जीवों को जीर्ण-शीर्ण-जर्जर तनरूप कारागृह से निकाल कर दिव्य देह रूप देवालय में पहुँचा देता है। कहा भी है - "मृत्युराज उपकारी जिय कौ, तन सों तोहि छुड़ावै। नातर या तन बन्दीगृह में, पड़ौ-पड़ौ बिललावै॥" कल्पना करें, यदि मृत्यु न होती तो और क्या-क्या होता, विश्व की व्यवस्था कैसी होती? अरे! सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में तो मृत्यु कोई गंभीर समस्या ही नहीं है; क्योंकि उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व नष्ट होता प्रतीत नहीं होता । तत्त्वज्ञानी यह अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु केवल पुराना झोंपड़ा छोड़कर नये (45)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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