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ऐसे क्या पाप किए! बिना नहीं रहता। रोना आ ही जाता है। राग का ऐसा ही विचित्र प्रकार है अतः न तो कृतज्ञता का ही लोप होगा और न लोकव्यवहार ही बिगड़ेगा। हाँ, जैसे-जैसे चारित्र में वृद्धि होती है नीचे का व्यवहार छूटता जाता है और भूमिकानुसार ऊपर का व्यवहार आता जाता है। पूर्णवीतराग दशा में भी जब तीर्थंकरों का भी हितोपदेशी होने का व्यवहार नहीं छूटता, और चार ज्ञान के धारी गणधर जैसे दिगम्बर मुनिराज के भी यथायोग्य व्यवहार होता है तो तेरा व्यवहार कैसे छूट जायगा?
यह तो ठीक है, किन्तु क्या प्रेरक-निमित्त भी कुछ नहीं करते? यदि नहीं, तो फिर इनका नाम प्रेरक निमित्त क्यों रखा गया?
धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्य, इच्छा शक्ति से रहित अचेतन व निष्क्रिय होने से उदासीन निमित्त कहलाते हैं और जीवद्रव्य इच्छावान व क्रियावान होने से एवं पुद्गल द्रव्य केवल क्रियावान होने से प्रेरक निमित्त कहलाते हैं, किन्तु कार्योत्पत्ति में सभी परद्रव्य धर्मास्तिकाय की तरह उदासीन ही होते हैं। जैसे वर का सहचारी होने से नाई भी बराती कहा जाता है; वैसे ही कार्य के सहचारी होने से निमित्तों को भी कारण कहा जाता है, किन्तु ये वास्तविक कारण नहीं है।
निमित्तों को निमित्त के रूप में तो सभी ज्ञानियों ने स्वीकार किया है; किन्तु उनको कर्ता के रूप में किसी ने नहीं माना। निमित्तों को कर्त्ता निमित्त स्वयं नहीं मानते । समयसारादि ग्रन्थों के समर्थ टीकाकार आचार्य अमृतचन्द जैसे ज्ञानी पुरुष स्वयं को टीका का निमित्त तो मानते हैं, किन्तु कर्ता नहीं । वे स्वयं कहते हैं :- “मुझे इस टीका का कर्ता कहकर मोह में मत नाचो तथा जड़-शास्त्रों का कर्त्ता कहकर जड़ की उपाधि मत दो, क्योंकि जड़ का कर्ता जड़ ही होता है।"
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने भी यही लिखा है - "वचनादिक लिखनादिक क्रिया, वर्णादिक अरु इन्द्रिय हिया।
ये सब हैं पुद्गल के खेल, इनसों नाहिं हमारो मेल ।।" पण्डित बनारसीदासजी के विचार भी दृष्टव्य हैं। वे कहते हैं -
जिनागम के आलोक में विश्व की कारण-कार्य व्यवस्था
"एक कारज के कर्ता न दरब दोय।। ___ दो कारज एक-द्रव्य न करतु है।" अर्थात् एक कार्य के दो द्रव्य मिलकर कर्त्ता नहीं होते तथा एक द्रव्य एक साथ दो कार्य नहीं कर सकता। ऐसा नहीं होता कि अपना कार्य भी करता रहे और दूसरे द्रव्य का भी कर्ता बन जाय।
यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि एक साथ न सही, आगे-पीछे तो परद्रव्य का कार्य कर सकेगा या नहीं?
नहीं, यह भी संभव नहीं है; क्योंकि कोई भी द्रव्य कभी भी खाली नहीं है। प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय अपना परिणमनरूप कार्य करता ही रहता है। अतः परद्रव्यरूप परिणमन करके अन्य का कर्ता बनने का उसे अवकाश ही नहीं है तथा परद्रव्यरूप परिणमन करने की उसमें सामर्थ्य भी नहीं है। परद्रव्य अपने में इतना परिपूर्ण है कि उसे परद्रव्य के सहयोग की जरूरत या अपेक्षा ही नहीं है, एवं उसमें परद्रव्य से सहयोग लेने की क्षमता भी नहीं है। अतः एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्त्ता मानना संभव नहीं है।
प्रश्न :- इस तरह से तो कृतज्ञता' और 'उपकार' शब्द निरर्थक ही सिद्ध हो जायेंगे?
उत्तर :- नहीं, वे शब्द निरर्थक नहीं है; उनका अर्थ तो अपनी जगह बराबर है, वे पूर्ण सार्थक हैं, किन्तु उनके धर्म समझाने में हम ही कहीं चूक रहे हैं, लोक में 'उपकार' का अर्थ जो भलाई माना गया है, वह अपनी जगह ठीक हो सकता है, परन्तु मोक्षमार्ग के संदर्भ में उपकार का अर्थ इससे भिन्न है। शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, उन्हें प्रकरण के अनुसार समझना होगा । तत्त्वार्थसूत्र जैसे सर्वमान्य आगम ग्रन्थ में 'उपकार' का अर्थ निमित्त किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय में धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं जीवद्रव्य के परस्पर उपकार बताते हुए गति, स्थिति, अवगाहन, परिणमन हेतुता अर्थात् निमित्तपना बताया है तथा 'जीव' और पुद्गल के उपकारों में भी शरीर, वचन, मन, सुख, दुःख,
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