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ऐसे क्या पाप किए !
निर्णय किसने किया? जो ज्ञान की पर्याय सर्वज्ञता का और वस्तु के स्वरूप का ऐसा निर्णय करती है वह ज्ञान पर्याय आत्मस्वभावोन्मुख हुये बिना नहीं रहती तथा उसे वर्त्तमान में ही धर्म का प्रारम्भ हो जाता है, और सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में भी वैसा ही ज्ञात हुआ होता है।
जिसने आत्मा के पूर्णज्ञान सामर्थ्य को प्रतीति में लेकर उसमें एकता की, वास्तव में उसी को सर्वज्ञ के ज्ञान की प्रतीति हुई है। जो राग को अपना स्वरूप मानकर राग का कर्त्ता बनता है, और रागरहित ज्ञानस्वभाव की जिसे श्रद्धा नहीं हैं उसे सर्वज्ञ के निर्णय की सच्ची मान्यता नहीं है, इसलिए सर्वज्ञ के निर्णय में ही ज्ञान-स्वभाव के निर्णय का सच्चा पुरुषार्थ आ जाता है और वही धर्म है।
लोगों को बाहर में भाग-दौड़ करने में ही पुरुषार्थ मालूम होता है, किन्तु अन्तर में ज्ञान-स्वभाव के निर्णय में, ज्ञातादृष्टापने का सम्यक् पुरुषार्थ आ जाता है उसे बहिर्दृष्टि लोग नहीं जानते । वास्तव में ज्ञापन ही आत्मा का पुरुषार्थ है, ज्ञायकपने से पृथक दूसरा कोई सम्यक् पुरुषार्थ नहीं है।
• अरे! मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीव मोक्ष के पुरुषार्थ (प्रयत्न) पूर्वक ही मोक्ष प्राप्त करेंगे ऐसा ही सर्वज्ञभगवान ने देखा है। "जब भगवान ने देखा होगा तब मोक्ष होगा" - ऐसे यथार्थ निर्णय श्रद्धा में तो आत्मा के परिपूर्ण स्वभाव का निर्णय भी साथ आ ही गया, और जहाँ ज्ञानस्वभाव का निर्णय हुआ वहाँ मोक्षमार्ग का सम्यक् पुरुषार्थ भी आ गया। और पुरुषार्थ की श्रद्धा वाले की होनहार भी भली होती है और उसकी काललब्धि भी मुक्तिमार्ग पाने की निकट आ गई इस तरह जिसके चारचार समवाय हो गये तो उसके निमित्त भी तदनुकूल मिल ही जाता है।
इसप्रकार सर्वज्ञता, क्रमबद्धपर्याय में सच्चा पुरुषार्थ जाग्रत होता है। सभी भव्य प्राणी सर्वज्ञता का निर्णय कर देव-शास्त्र-गुरु के सच्चे श्रद्धान बनकर आत्मकल्याण करें यही मंगल कामना है।
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भक्तामर स्तोत्र : एक निष्काम भक्ति स्तोत्र सम्पूर्ण स्तोत्र साहित्य में भक्तामर सर्वाधिक प्रचलित स्तोत्र है। मुनि श्री मानतुङ्गाचार्य द्वारा रचित भक्तिरस से सरावोर यह अनुप स्तोत्र युगों-युगों से कोटि-कोटि भक्तों का कण्ठाहार बना हुआ है। क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर - सभी लोग इस स्तोत्र द्वारा प्रतिदिन वीतरागी परमात्मा की निष्काम स्तुति, भक्ति एवं आराधना करके अपने जन्मजन्मान्तरों के पापों को क्षीण करते रहे हैं। लाखों माताएँ- बहिनें तो आज भी ऐसी मिल जायेंगी, जो भक्तामर का पाठ किये बिना जल-पान क ग्रहण नहीं करतीं। इस काव्य के प्रति जन सामान्य की इस अटूट श्रद्धा और लोकप्रियता के अनेक कारण हैं।
प्रथम, तत्त्वज्ञानियों की श्रद्धा का भाजन तो यह इसलिए है कि इसमें निष्काम भक्ति की भावना निहित है। ऐसा कहीं कोई संकेत नहीं मिलता है, जिसके द्वारा भक्त ने भगवान से कुछ याचना की हो या लौकिक विषय की वाञ्छा की हो।
जहाँ भय व रोगादि निवारण की चर्चा है, वह सामान्य कथन है, कामना के रूप में नहीं है। जैसे- कहा गया है कि 'हे जिनेन्द्र ! जो आप की चरण-शरण में आता है; उसके भय व रोगादि नहीं रहते, सभी प्रकार के संकट दूर हो जाते हैं। इसीप्रकार 'जब परमात्मा की शरण में रहने से विषय का विष नहीं चढ़ता तो सर्प का विष क्या चीज है ? जब मिथ्यात्व का महारोग मिट जाता है तो जलोदरादि रोगों की क्या बात करें ?
उपर्युक्त दोनों कथनों में याचना कहाँ है ? यह तो वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन है। जो जीव विषय कषाय की प्रवृत्ति छोड़कर निष्काम भाव
१- २. देखिए काव्य ४५ एवं ४७, यही पुस्तक