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ऐसे क्या पाप किए!
हम लोग अपनी-अपनी पत्नियों को लेने के लिए कभी न कभी सुसराल तो गये ही होंगे और आपके स्वसुर ने अपनी शक्त्यानुसार ५१/- १०१/- रु. देकर आपको तिलक किया ही होगा; परन्तु आपका उद्देश्य पत्नी को लाने का था न कि तिलक के रुपया लेने का, फिर भी तिलक तो हुआ ही होगा, तब आपने उस तिलक के रुपयों का क्या किया था? मेरे ख्याल से आपने उन रुपयों को वहाँ जो उनके बाल-बच्चे खड़े होंगे उन्हें ही बाँट दिये होंगे और पत्नी लेकर घर चले आये होंगे! यदि आप उन सभी रुपयों को चुपचाप जेब के हवाले कर लेते और सोचते चलो अच्छा हुआ ८ दिन का जेब खर्च का काम चलेगा, और उन रुपयों के लालच में शीघ्र-शीघ्र सुसराल में आने लगते तो क्या फिर आपको बार-बार १०१/- रुपये का टीका होता? अरे भाई दूसरी बार में ही १०१/- से ११/- रुपये रह जाते, और रुपयों का लालची जानकर कोई आदर भी नहीं करता।
अरे भाई! जिस प्रकार पत्नी को साथ लाते हैं और रुपये वहीं बांट आते हैं, ठीक इसी प्रकार भगवान की भक्ति में वीतरागता तो ग्रहण करते हैं और बीच-बीच में आया हुआ प्रशस्त रागरूप पुण्य वहीं भगवान के प्रज्वलित केवलज्ञानरूपी अग्नि में समर्पित कर देते हैं। पुण्य कोई ग्रहण करने की वस्तु नहीं। यद्यपि पूजा करने में पुण्य मिलेगा, इसमें दो राय नहीं है; परन्तु जो पुण्य का लोभी होकर ग्रहण करेगा और बार-बार पुण्य फल की प्राप्ति हेतु पूजा करेगा तो तीव्र राग होने से वह भी नहीं मिलेगा, अतः पूजा के सही उद्देश्य को समझकर पूजा करना चाहिए। ____पुण्य कार्य करना अलग बात है और पुण्य की चाह करना अलग बात है। पापों से बचने के लिए पुण्य कार्य तो ज्ञानी भी करते हैं, किन्तु ज्ञानी को पुण्य की चाह नहीं होती। ज्ञानी जीव बुद्धिपूर्वक आदर के साथ पुण्य कार्य करते हुए भी श्रद्धा में उसे उपादेय नहीं मानते।
श्रावक के षट्आवश्यक
यहाँ ज्ञातव्य है कि पाप तो बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता है और पुण्य अपनी भूमिकानुसार स्वयं छूट जाता है, उसे छोड़ना नहीं पड़ता।
जब पुण्य धर्म का चोला पहनकर आता है तो उससे बार-बार सावधान करना पड़ता है कि भाई यह पुण्य परिणाम धर्म नहीं है, इसे धर्म मानना अज्ञान है।
इसी स्वस्ति मंगल पाठ में द्रव्य शुद्धि व भाव शुद्धि की जो चर्चा है, इसका तात्पर्य यह है कि बाह्य शारीरिक शुद्धि को यथाशक्ति करके भाव शुद्धि प्राप्त करने की हृदय से कामना करता हूँ। 'यथाशक्ति' का अर्थ है स्नानादि करके शुद्ध वस्त्र पहनना । वैसे तो शरीर हाड़, माँस का पिण्ड है, उसमें भी नव घिनावने द्वार प्रवाहित होते ही रहते हैं, मल-मूत्र का भरा हुआ घड़ा है, जिसकी शुद्धि संभव ही नहीं है, फिर भी बाह्य शुद्धि हेतु स्नानादि करके शुद्ध वस्त्र पहनना आवश्यक है। यही द्रव्य शुद्धि है। मैं विविध आलंबन स्वरूप अष्टद्रव्य लेकर हे भगवन! आपकी भूतार्थ यज्ञ यानी यथार्थ पूजन करता हूँ। विविध आलंबन में अष्टद्रव्य के अतिरिक्त वाद्य गीत-नृत्यादि भी हो सकते हैं।
पूजा में अष्ट द्रव्यों का प्रयोजन :- जो कमजोर होते हैं, उन्हें आलंबनों की आवश्यकता होती है जो सबल हैं उसे आलंबन नहीं चाहिए। छठवें सातवें गुणस्थान में झूलने वाले भाव लिंगी परम दिगम्बर मुनिराजों की आत्मा अशक्त नहीं है, अतः उन्हें पूजन में आलंबन स्वरूप अष्टद्रव्य व नृत्य-गीत-संगीतादि की आवश्यकता नहीं होती। गृहस्थ का उपयोग इधर-उधर भटकता है, अतः चित्त की एकाग्रता हेतु उन्हें आलंबन चाहिए।
पूजन में अष्टद्रव्य चढ़ाने का दूसरा उद्देश्य यह है कि “हे भगवन! आज तक मैंने अनेक बार इन बहुमूल्य अष्टद्रव्य स्वरूप भोग सामग्री का सेवन किया; किन्तु इनसे किंचित् भी तृप्ति नहीं हुई, अतएव पुण्य के फल
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