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ऐसे क्या पाप किए ! लोक प्रचलित “जुआ खेलना-मांस-मद-वैश्याव्यसन-शिकारपररमणी-रमण” रूप सात प्रकार के द्रव्य व्यसनों का त्याग कर देने पर भी यदि अशुभोदय में हार एवं शुभोदय में जीत का अनुभव करके क्रमश: शोक व हर्ष मानता रहा, उनमें दुःख-सुख का वेदन करता रहा तो वह यथार्थतया जुआ का त्यागी नहीं है, क्योंकि जुए के फल में भी तो जीव को हर्ष-विषाद ही होता है, यह उनसे मुक्त कहाँ हो पाया है ? इसीप्रकार मांस खाने का सर्वथा त्याग करने पर भी यदि गोरे-भूरे मांसल देह में मगन रहा तो वह सच्चा मांस का त्यागी भी नहीं है। इसीतरह मोह-ममता में मगन रहकर अपने आत्मा से अजान रहना एक तरह से सुरापान ही है। कविवर दौलतरामजी ने मोह को ही मदपान करना कहा है -
मोह महामद पिया अनादि, भूल आपको भरमत वादि ।।। देखो, लौकिक सप्तव्यसनों का सेवन सज्जन तो करते ही नहीं हैं, सामान्यजन भी लोकनिन्दा के भय से, आर्थिक अभाव से एवं स्वास्थ्य बिगड़ने के भय से नहीं करते। जो करते भी हैं, वे भी उसे अच्छा नहीं मानते; किन्तु कवि द्वारा प्रतिपादित भावों से सम्बन्ध रखनेवाले ये उपर्युक्त भाव सप्तव्यसन तो सभी के द्वारा सेवन किए जा रहे हैं; क्योंकि ये भावव्यसन तो तत्त्व से अपरिचित जनों को व्यसन से ही नहीं लगते । जो कि आध्यात्मिक उन्नति में बहुत बड़े बाधक हैं। अत: यहाँ कवि द्वारा इन व्यसनों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया गया है। निश्चय ही हमारे लिए उनकी यह मौलिक देन है।
केवल बाह्य क्रियाकाण्ड को मानकर उसमें ही मगन हुए लोगों को सावधान करते हुए कवि कहते हैं -
बहुविध क्रिया कलेस सौं, सिवपद लहै न कोइ ।
ज्ञानकला परगास सौं, सहज मोखपद होई ।। १. छहढाला, प्रथम ढाल, छन्द ३ २. समयसार नाटक, निर्जरा द्वार, छन्द २६
जैन अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कवि : बनारसीदास
तथा पर परमात्मा की खोज में भटकते हुए भक्तों का अपने ही भीतर बैठे परमात्मा की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए वे लिखते हैं -
केई उदास रहै प्रभु कारन, केई कहै उठि जांहि कहीं कै। केई प्रनाम करै गढ़ि मूरति, केई पहार चढ़े चढ़ि छीकैं।। केई कहैं असमान के ऊपरि, केई कहै प्रभु हैठि जमीं कै।
मेरो धनी नहि दूर दिसन्तर, मोहि मैं है मोहि सूझत नीकै।। कविवर बनारसीदास कबीर की भांति रहस्यवादी भी हैं, उनकी अधिकांश रचनायें अध्यात्म से ओतप्रोत हैं और अध्यात्म की उत्कर्ष सीमा का नाम ही तो रहस्यवाद है, इस दृष्टि से बनारसीदास को रहस्यवादी कवि मानने में जरा भी हिचक नहीं होनी चाहिए।
डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में - "रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्चल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है, यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।"२
रहस्यवाद की इस कसौटी पर कवि बनारसीदासजी खरे उतरते हैं। उनके अध्यात्म गीतों में रहस्यवाद की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है।
मैं बिरहिन पिय के आधीन । यों तलफों ज्यों जलबिन मीन ।। बाहर देखू तो पिय दूर । घट देखू घट में भरपूर ।। घट महि गुप्त रहे निराधार । वचन-अगोचर मन के पार ।।
अलख अमूरति वर्णन कोय । कबधौं पिय के दर्शन होंय ।।' विरह में व्याकुल सुमतिरूप नायिका को जब अनुभव होने लगा कि आत्मा रूप नायक उससे भिन्न नहीं है, वह तो उसी के घट में बसता है, तब वह कहती है कि
पिय मोरे घट मैं पिय माहि । जलतरंग ज्यों दुविधा नांहि ।।
पिय मो करता मैं करतूति । पिय ज्ञानो मैं ज्ञान विभूति ।। १. समयसार नाटक, बंध द्वार, छन्द ४८ २. कबीर का रहस्यवाद, १९७२, पृष्ठ ३४ ३. बनारसीविलास, पृष्ठ १५९
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