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नित्य देव दर्शन क्यों? आज का अधिकांश पढ़ा-लिखा वर्ग भौतिकवादी व भोगवादी होता जा रहा है। भौतिकवाद व भोगवाद में ही उसे सभ्यता व आधुनिकता दिखाई देती है। सवेरे उठने के पहले बिना मुँह धोये उन्हें बेड-टी (बिस्तर पर ही चाय) चाहिए और बिना स्नान किए हेवी-नास्ता। फिर टी.वी., न्यूजपेपर्स, यदि समय हुआ तो मेग्जीन्स (पत्र-पत्रिकायें व उपन्यास) यही सब उनका स्वाध्याय है। शेविंग, स्नानादि नित्य कर्मों में भले ही घन्टों बितादें; परन्तु बाथरूम से निकलकर सीधे किचिन (रसोईघर) में ही जा विराजेंगे, मानो मंदिर से तो इन्हें कोई सरोकार ही नहीं है। देवदर्शन नाम की चीज तो इनकी दैनिकचर्या में शामिल ही नहीं है। ___ काश! किसी आगन्तुक या मेहमान ने इस कारण दूध-नास्ता नहीं लिया कि वह देव-दर्शन के बिना कुछ भी नहीं लेता तो बेचारा वह व्यक्ति उन आधुनिक, सभ्य महाशय की नजरों में एकदम बेकवर्ड (पुरातन पन्थी) असभ्य किंवा मूर्ख नजर आता है।
क्या करें ऐसी सभ्यता का? क्या कहें उन फारवर्ड (आधुनिक) लोगों से? कैसे समझायें उन पढ़े-लिखे समझदारों को? जो स्वयं को समझदार, पढ़ा-लिखा, सभ्य व आधुनिक मान बैठे हैं। और इस सभ्यता व
आधुनिकता की आड़ में भूल बैठे हैं उन महान आदर्शों को, जिनके दर्शनों से, जिनके स्मरण से अथवा जिनकी प्रेरणा से पापी जीव पुण्यात्मा बन जाते हैं, पतित-आत्मा पावन बन जाते हैं, पामर प्राणी परमात्मा तक बन जाते हैं। वे हमारे आदर्श हैं सच्चे देव, सच्चे शास्त्र एवं सच्चे गुरु ।
ये आधुनिक लोग निरे नास्तिक नहीं हैं, कभी-कभी त्योहारों उत्सवों अथवा धार्मिक पर्यों में ये "शौकिया" मन्दिर जाते हैं और जब कभी इन्हें
नित्य देवदर्शन क्यों? कोई मुसीबत आ घेरती है या फिर किसी वस्तु विशेष के आकांक्षी होते हैं, तब ये लोग 'भगवान' को अवश्य याद करते हैं, ऐसे समय इन्हें-संकट मोचक भक्तामर पाठ' आदि भी याद आते हैं। तब ये तीर्थ यात्रायें करते, मनोतियाँ मनाते, घी के दीपक चढ़ाते, अपने संकट मोचक प्रभु को मनाने के लिए जो भी कर सकते हैं, सब करने को तत्पर रहते हैं। परन्तु उन्हें नहीं मालूम कि कामना सहित स्वार्थ को लेकर किये गये धार्मिक कार्य कोई अर्थ नहीं रखते। ऐसा करने से देव-दर्शन, अर्चन व पूजन आदि का उद्देश्य भी पूरा नहीं होता है; क्योंकि वीतरागी भगवान उनके इन कार्यों से प्रसन्न होकर उनका दुःख दूर नहीं करते, भक्तों का दुःख दूर करें - ऐसा उनका स्वभाव ही नहीं है। ___ जहाँ एक ओर पढ़े-लिखों की यह स्थिति है, वहीं दूसरी ओर रूढ़िवाद के हामी कुछ लोग देव-दर्शन की प्रतिज्ञा लेकर मात्र उस प्रतिज्ञा के निर्वाह करने में जान तक लगा देते हैं; क्योंकि प्रतिज्ञा लेने वालों की भी शास्त्रों में खूब प्रशंसा की है, परन्तु वह प्रशंसा-प्रतिज्ञा न लेने वालों की अपेक्षा से की गई है। इससे अधिक उस प्रशंसा का और कुछ अर्थ नहीं है।
जिस प्रकार सुन्दर, स्वादिष्ट एवं पौष्टिक आहार के दर्शन मात्र से पेट नहीं भरता, क्षुधा शान्त नहीं होती, ठीक उसी प्रकार मात्र देव-दर्शन की प्रतिज्ञा के निर्वाह से सुख-शान्ति प्राप्त नहीं होती। हाँ इतना अवश्य है कि जिस तरह आहार के देखने से, उधर उपयोग जाने से भूख बढ़ जाती है, खाने की इच्छा जागृत हो जाती है, उसी प्रकार देव-दर्शन से देव जैसा ही बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है। तथा जैसे सुन्दर खिलौने को देखकर बालक का मन मचल उठता है, वैसे ही देव की परम शान्त-मुद्रा को देखकर दर्शक का मन शान्त रहना चाहता है। अतः प्रथम भूमिका में जब तक विशेष समझ प्राप्त नहीं भी हुई हो तब भी देव-दर्शन की प्रतिज्ञा लेना आवश्यक तो है ही, अनिवार्य भी है। निरर्थक नहीं है।
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