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________________ १८४ आध्यात्मिक भजन संग्रह २२. अरे मन बनिया वान न छोड़े (राग सोहनी) अरे मन बनिया बान न छोड़े।।टेर ।। पाँच पाट को जामो पहस्यो ऐंठ्यो ऐंठ्यो ऐंठ्यो डोलै । जन्म जन्म को मारयो कूट्यो तोहु साँच न बोलै ।।१।। घर में थारे कुमति बननिया छिन छिन में चित चौरे । कुटुंब थारो ऐसो हरामी, अमृत में विष घोलै ।।२।। पूरा बाट मांहि सरकावै घटती बाट टटोलै। पासंग में चतुराई राखे पूरा कबहु न तोलै ।।३।। चींथी लिख लिख बही बनाई कूडा लेखा जोडै । कहत बनारस इनसे डरियो कपट गांठि नहिं खोलै ।।४ ।। २३. अरे निज बतियाँ क्यों नहीं जानै (राग सोहनी) अरे निज बतियाँ क्यों नहीं जानै ।।टेर ।। चेतन रूप अनूप तिहारो, अचल अबाधि अडोलै । जन्म मरण को छेदनहारो, ग्यान अखंड अतोलै ।।१।। कुगुरुन को परसंग पाय के ओलों सोलों डोलै । पर पदार्थ निजरूप मान के मिथ्या करत किलोलै ।।२।। एक समय भी आप लखे तो, पावे रतन अमोलै । मिथ्या दरशन ज्ञान चरण की फेर न मांचत रोलै ।।३।। कर कर मोह शिथिल लखि आतम, स्यादवाद जुत तोले। राम कहै उतपति नाशत है अर थिर थान विरोले ।।४ ।। २४. हो प्यारा चेतन अब तो संभारो ज्ञान गुण धारो रे (राग परज) हो प्यारा चेतन अब तो संभारो ज्ञान गुण धारो रे ।।टेर ।। या पुद्गल संग बहुत लुभायो, यो नहीं छै तिहारो ।।१।। विभिन्न कवियों के भजन तू चेतन, ज्ञान गुण रूपी, आपो आप संभारो रे ।।२।। मन, वच, तन, कर माहीं देखो, शुद्ध स्वरूप तिहारो रे ।।३।। २५. हो जागो जी चेतन अबतो सवेरो (राग परज) हो जागो जी चेतन अबतो सवेरो मोह नींद विसारोजी ।।टेर ।। काल अनन्त बीते अब सोते, अबतो ग्रंथि विदारोजी ।।१।। नर भव पायो, सैनी कहायो, अब गुरु बैन चितारोजी ।।२।। लब्धि देशना मिली भाग्य से, रसपति करण संभारोजी ।।३।। २६. कहाँ चढ़ रहो मान शिखापैं, (राग कालंगडा) कहाँ चढ़ रहो माने शिखा., जासो सुर चक्री नहीं धापै ।।टेर ।। पुन्य उदय दोय दाम पाय के करतो लापाला । दो अंगुली की लकड़ी लेकर, जंबूद्वीप को नापै ।।१।। रावण से दुरगति में पहुँचे, जासु इन्द्रादिक काँपै । भरत सरीसा मान भंग होय, नवनिधी है घर जाके ।।२।। इस विधि इनका देख तमाशा अब क्यूं नैना ढाँपे । वे नर ज्यों उतरे मान शिखर” निश्चय शिवपुर थापैं ।।३ ।। २७. थारो मुख चंद्रमा देखत भ्रम तम भाग्यो (राग कालंगडा ) थारो मुख चन्द्रमा देखत भ्रम तम भाग्यो, हेजी महाराज ।।टेर ।। पाप ताप मिटि शान्ति भाव होय, चेतन निजरस पाग्यो ।।१।। चित चकोर थिरता अब पाई, आनन्दरस सब लाग्यो ।।२।। नैन छिनक अन्तर नहिं चाहत, शिवमग लालच लाग्यो ।।३।। wat kabata
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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