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आध्यात्मिक भजन संग्रह १४. चिदानंद भूलि रह्यो सुधिसारी
(राग उझाज जोगीरासा ) चिदानंद भूलि रह्यो सुधिसारी, तू तो करत फिरै म्हारी म्हारी ।।टेर ।। मोह उदय तें सबही तिहारी जनक मात सुत नारी। मोह दूरि कर नेत्र उघारो, इन में कोई न तिहारी ।।१।। झाग समान जीवना जोवन परवत नाला कारी। धनपति रंक समान सबन को जात न लागे वारी ।।२।। जुवां मांस मधु अरु वेश्या, हिंसा चौरी जारी । सप्त व्यसन में रत्त होय के निजकुल कीन्ही कारी ।।३।। पुन्य पाप दोउ लार चलत हैं यह निश्चय उरधारी । धर्म द्रव्य तोय स्वर्ग पठावै पाप नरक में डारी ।।४ ।। आतम रूप निहार भजो जिन धर्म मुक्ति सुखकारी । बुधमहाचंद जानि यह निश्चय, जिनवर नाम सम्हारी ।।५ ।। १५. निज घर नाहिं पिछान्यारे
(राग उझाज जोगीरासा ) निज घर नाहिं पिछान्यारे, मोह उदय होने तैं मिथ्या भर्म भुलानारे ।।टेर ।। तू तो नित्य अनादि अरूपी सिद्ध समानारे । पुद्गल जड़ में राचि भयो तू मूर्ख प्रधानारे ।।१।। तन धन जोबन पुत्र वधू आदिक निज मानारे । यह सब जाय रहन के नांही समझ सयानारे ।।२।। बालपने लड़कन संग जोबन त्रिया जवानारे । वृद्ध भयो सब सुधि गई अब धर्म भुलानारे ।।३ ।। गई गई अब राख रही तू समझ सियानारे । बुद्धमहाचन्द विचारिके निज पद नित्य रमानारे ।।४।।
विभिन्न कवियों के भजन १६. अपना कोई नहीं है रे
(राग ख्याल तमाशा व गजल ) अपना कोई नहीं है रे जगत का झूठा है व्यवहार ।।टेर ।। माता कहै यह पुत्र हमारा, पिता कहै सुत मेरा । भाई कहै यह भुजा हमारी, त्रिया कहै पति मेरा ।।१।। माता न्हाती घर के द्वारे, त्रिया न्हाती खूणै । भाई भतीजा स्वार्थ का सीरी हंस अकेला धूणै ।।२।। ऊँचे महल स्वार्थ दरवाजे, भाँत-भाँत की टाटी। आतम राम अकेलो जासी पड़ी रहेगी माटी ।।३।। घर में तिरया रोवण लागी, जोड़ी बिछड़न लागी। 'चन्द्रकृष्ण' कहै परभव जाता संग चलै नहिं तागी ।।४ ।। १७. चेतन काहे को पछतावता
(राग ख्याल तमाशा व गजल) चेतन काहे को पछतावता, यहाँ कोई नहीं है तेरा ।।टेर ।। हम न किसी के कोई न हमारा, यह जग सारा द्वन्द्व पसारा । पक्षी का सा रैन गुजारा, भोर भये उड़ जावता,
कहीं और जगह कर डेरा ।।१।। इक दिन है तुझ को भी जाना, फिर पीछे उलटा नहिं आना। पड़ा रहै सब माल खजाना, फिर काहे चित्त भ्रमावता,
झूठा घर वार बसेरा ।।२।। जिसको भाई बेटा बताता, वोही तेरी चिता बनाता। खप्पन को भी हर ले जाता बे रहम हो आग लगावता,
शिर फोड़ भस्म कर ढेरा ।।३।। जो रोवै सो लोक दिखैया, या रोवै सुख अपने को भैया। तेरे लिये कछु नाहिं करैया, क्यों न प्रभु गुण गावता,
जासु वेग मिटै भव फेरा ।।४ ।।
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