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________________ पण्डित दौलतरामजी कृत भजन १०२ आध्यात्मिक भजन संग्रह चारों अनुयोग सुहितदेश दिठपरी । शिवमगके लाह की सुचाह विस्तरी।।४।।धन. ।। सम्यक् तरु धरनि येह करन करिहरी । भवजलको तरनि समर-भुजंग विषजरी।।५।।धन. ।। पूरवभव या प्रसाद रमनि शिव वरी। सेवो अब 'दौल' याहि बात यह खरी।।६।।धन. ।। २३. अब मोहि जानि परी अब मोहि जानि परी, भवोदधि तारनको है जैन ।।टेक.।। मोह तिमिर तैं सदा कालके, छाय रहे मेरे नैन । ताके नाशन हेत लियो, मैं अंजन जैन सु ऐन।।१।।अब. ।। मिथ्यामती भेषको लेकर, भाषत हैं जो वैन । सो वे बैन असार लखे मैं, ज्यों पानी के फैन।।२।।अब. ।। मिथ्यामती वेल जग फैली, सो दुख फलकी दैन। सतगुरु भक्तिकुठार हाथ लै, छेद लियो अति चैन।।३।।अब. ।। जा बिन जीव सदैव कालतें, विधि वश सुखन लहै न। अशरन-शरन अभय 'दौलत' अब, भजो रैन दिन जैन।।४।।अब.।। २४. ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै, जाको जिनवानी न सुहावै ।।टेक. ।। वीतरागसे देव छोड़कर, भैरव यक्ष मनावै । कल्पलता दयालुता तजि, हिंसा इन्द्रायनि वावै।।१।।ऐसा. ।। रुचै न गुरु निर्ग्रन्थ भेष बहु, - परिग्रही गुरु भावै। परधन परतियको अभिलाषे, अशन अशोधित खावै।।२।।ऐसा.।। परकी विभव देख है सोगी, परदुख हरख लहावै। धर्म हेतु इक दाम न खरचै, उपवन लक्ष बहावै।।३ ।।ऐसा. ।। ज्यों गृह में संचै बहु अघ त्यों, वनहू में उपजावै। अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, बाघम्बर तन छावै।।४।।ऐसा. || आरम्भ तज शठ यंत्र मंत्र करि, जनपै पूज्य मनावै। धाम वाम तज दासी राखै, बाहिर मढ़ी बनावै।।५।।ऐसा. ।। नाम धराय जती तपसी मन, विषयनिमें ललचावै। 'दौलत' सो अनन्त भव भटकै, ओरनको भटकावै।।६।।ऐसा.।। ३५. ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें आवै ।।टेक. ।। संशय विभ्रम मोह-विवर्जित, स्वपर स्वरूप लखावै। लख परमातम चेतनको पुनि, कर्मकलंक मिटावै।।१।।ऐसा. ।। भवतनभोगविरक्त होय तन, नग्न सुभेष बनावै । मोहविकार निवार निजातम-अनुभव में चित लावै।।२।।ऐसा. ।। त्रस-थावर-वध त्याग सदा, परमाद दशा छिटकावै। रागादिकवश झूठ न भाखै, तृणहु न अदत गहावै।।३ ।।ऐसा. ।। बाहिर नारि त्यागि अंतर, चिद्ब्रह्म सुलीन रहावै। परमाकिंचन धर्मसार सो, द्विविध प्रसंग बहावै।।४ ।।ऐसा. ।। पंच समिति त्रय गुप्ति पाल, व्यवहार-चरनमग धावै। निश्चय सकल कषाय रहित है, शुद्धातम थिर थावै।।५।।ऐसा. ।। कुंकुम पंक दास रिपु तृण मणि, व्याल माल सम भावै। आरत रौद्र कुध्यान विडारे, धर्मशुकलको ध्यावै।।६।।ऐसा. ।। जाके सुखसमाज की महिमा, कहत इन्द्र अकुलावै। 'दौल' तासपद होय दास सो, अविचलऋद्धि लहावै।।७।।ऐसा.।। २६. कबधौं मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर कबधौं मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं भवोदधि पारा हो ।।टेक. ।। भोगउदास जोग जिन लीनों, छाँडि परिग्रहभारा हो। इन्द्रिय दमन वमन मद कीनो, विषय कषाय निवारा हो।।१।।कबधौं. ।। कंचन काँच बराबर जिनके, निंदक बंदक सारा हो। दुर्धर तप तपि सम्यक निज घर, मनवचतनकर धारा हो।।२।।कबधौं. ।। (५२)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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