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________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह चकवी कुमति बिछुर अति विलखे, आतमसुधा स्रवायौ। शिथिल भए सब विधिगन फन्द।।२ ।।निरखत. ।। विकट भवोदधिको तट निकट्यौ, अघतरुमूल नसायौ। 'दौल' लह्यौ अब सुपद स्वछन्द।।३ ।।निरखत. ।। १२. मैं हरख्यौ निरख्यौ मुख तेरो मैं हरख्यौ निरख्यौ मुख तेरो।। नासान्यस्त नयन 5 हलय न, वयन निवारन मोह अंधेरो ।।टेक. ।। परमें कर मैं निजबुधि अब लों, भवसरमें दुख सह्यौ घनेरो। सो दुख भानन स्वपर पिछानन, तुमबिन आन न कारन हेरो।।१।। चाह भई शिवराह लाहकी, गयौ उछाह असंजम केरो। 'दौलत' हितविराग चित आन्यौ, जान्यौ रूप ज्ञानदृग मेरो ।।२।। १३. दीठा भागनतें जिनपाला दीठा भागनतें जिनपाला मोहनाशनेवाला ।।टेक. ।। सुभग निशंक रागविन यातें, बसन न आयुधवाला ।।१।। जास ज्ञानमें युगपत भासत, सकल पदारथ माला ।।२।। निजमें लीन हीन इच्छा पर, हितमितवचन रसाला ।।३।। लखि जाकी छवि आतमनिधि निज, पावत होत निहाला ।।४।। 'दौल' जासगुन चिंतत रत है, निकट विकट भवनाला।।५।। १४. शिवमग दरसावन रावरो दरस शिवमग दरसावन रावरो दरस ।।टेक. ।। परमपद-चाह-दाह-गद-नाशन, तुम बच भेषज-पान सरस ।।१।। गुणचितवत निज अनुभव प्रगटै, विघटै विधिठा दुविध तरस ।।२।। 'दौल' अवाची संपति सांची, पाय रहै थिर राच सरस ।।३।। पण्डित दौलतरामजी कृत भजन १५. जिन छवि तेरी यह जिन छवि तेरी यह, धन जगतारन ।।टेक ।। मूल न फूल दुकूल त्रिशूल न, शमदमकारन भ्रमतमवारन ।।जिन. ।। जाकी प्रभुताकी महिमा , सुरनधीशिता लागत सार न । अवलोकत भविथोक मोख मग, चरत चरत निजनिधि उरधारन ।।१।। जजत भजत अघ तौ को अचरज? समकित पावन भावनकारन । तासु सेव फल एव चहत नित, 'दौलत' जाके सुगुन उचारन ।।२।। १६. प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी ।।टेक ।। परम निराकुलपद दरसावत, वर विरागताकारी। पट भूषन बिन पै सुन्दरता, सुरनरमुनिमनहारी ।।१।। जाहि विलोकत भवि निज निधि लहि, चिरविभावता टारी। निरनिमेषः देख सचीपती, सुरता सफल विचारी ।।२।। महिमा अकथ होत लख ताकी, पशु सम समकितधारी। 'दौलत' रहो ताहि निरखनकी, भव भव टेव हमारी ।।३।। १७. जिन छवि लखत यह बुधि भयी जिन छवि लखत यह बुधि भयी ।।टेक.।। मैं न देह चिदंकमय तन, जड़ फरसरसमयी ।।जिन. ।। अशुभशुभफल कर्म दुखसुख, पृथकता सब गयी। रागदोषविभावचालित, ज्ञानता थिर थयी।।१।।जिन. ।। परिग्रह न आकुलता दहन, विनशि शमता लयी। 'दौल' पूरवअलभ आनंद, लह्यौ भवथिति जयी।।२।।जिन. ।। १८. ध्यानकृपान पानि गहि नासी ध्यानकृपान पानि गहि नासि, त्रेसठ प्रकृति अरी। शेष पचासी लाग रही है, ज्यौं जेवरी जरी ।।ध्यान. ।। sa kabata pios (४८)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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