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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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५४. सब जगको प्यारा, चेतनरूप निहारा
दरव भाव नो करम न मेरे, पुद्गल दरव पसारा । । सब. ।। चार कषाय चार गति संज्ञा, बंध चार परकारा ।
पंच वरन रस पंच देह अरु, पंच भेद संसारा ।। सब ।। १ ।। छहों दरब छह काल छहलेश्या, छहमत भेदतैं पारा ।
परिग्रह मारगना गुन- थानक, जीवथानसों न्यारा । । सब. ।। २ ।। दरसन ज्ञान चरन गुनमण्डित, ज्ञायक चिह्न हमारा ।
सोऽहं सोऽहं और सु औरे, 'द्यानत' निहचै धारा । । सब. ।। ३ ।। ५५. सुन चेतन इक बात.......
सुन चेतन इक बात हमारी, तीन भुवनके राजा । रंक भये बिललात फिरत हो, विषयनि सुखके काजा ।। १ ।। चेतन तुम तो चतुर सयाने, कहाँ गई चतुराई । रंचक विषयनिके सुखकारण, अविचल ऋद्धि गमाई ।। २ ।। विषयनि सेवत सुख नहिं राई, दुख है मेरु समाना । कौन सयानप कीनी भौंदू, विषयनिसों लपटाना ।। ३ ।। इस जगमें थिर रहना नाहीं, तैं रहना क्यों माना । सूझत नाहिं कि भांग खाइ है, दीसै परगट जाना ।। ४ ।। तुमको काल अनन्त गये हैं, दुख सहते जगमाहीं । विषय कषाय महारिपु तेरे, अजहूँ चेतत नाहीं ॥। ५ ।। ख्याति लाभ पूजाके काजैं, बाहिज भेष बनाया । परमतत्त्व का भेद न जाना, वादि अनादि गँवाया || ६ || अति दुर्लभ तैं नर भव लहकैं, कारज कौन समारा । रामा रामा धन धन साँटें, धर्म अमोलक हारा ।।७।। घट घट साईं मैंनू दीसै, मूरख मरम न पावे । अपनी नाभि सुवास लखे विन, ज्यों मृग चहुँ दिशि धावै ॥ ८ ॥
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(१६)
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
घट घटसाई घटसा नाईं, घटसों घटमें न्यारो । घूंघटका पट खोल निहारो, जो निजरूप निहारो ।।९ ।। ये दश माझ सुनैं जो गावै, निरमल मनसा करके । 'द्यानत' सो शिवसम्पति पावै, भवदधि पार उतरके ।। १० ।। ५६. सुनो! जैनी लोगो, ज्ञानको पंथ कठिन है सब जग चाहत है विषयनिको, ज्ञानविषै अनबन है ।। सुनो. ।। राज काज जग घोर तपत है जूझ मरैं जहा रन है ।
सो तो राज हेय करि जानें, जो कौड़ी गाँठ न है । । सुनो. ।। १ ।। वचन बात तनकसी ताको, सह न सकै जग जन है ।
सिर पर आन चलावैं आरे, दोष न करना मन है । । सुनो. ।। २ ।। ऊपरकी सब थोथी बातें, भावकी बातें कम है । 'द्यानत' शुद्ध भाव है जाके, सो त्रिभुवनमें धन है । सुनो. ।। ३ ।। ५७. सो ज्ञाता मेरे मन माना, जिन निज निज पर पर जाना छहौँ दरबतैं भिन्न जानकै, नव तत्वनितैं आना । ताकौं देखें ताकौं जाने, ताहीके रसमें साना ।। १ ।। कर्म शुभाशुभ जो आवत हैं, सो तो पर पहिचाना । तीन भवन को राज न चाहै, यद्यपि गांठ दरब बहु ना ।। २ ।। अखय अनन्ती सम्पति विलसै, भव-तन-भोग-मगन ना। 'द्यानत' ता ऊपर बलिहारी, सोई 'जीवन मुकत' भना || ३ || ५८. श्रीजिनधर्म सदा जयवन्त ......
तीन लोक तिहुँ कालनिमाहीं, जाको नाहीं आदि न अन्त।। श्री ।। सुगुन छियालिस दोष निवारें, तारन तरन देव अरहंत ।
गुरु निरग्रंथ धरम करुनामय, उपजैं त्रेसठ पुरुष महंत ।। श्री ।। १ ।। रतनत्रय दशलच्छन सोलह-कारन साध श्रावक सन्त ।
छहौं दरब नव तत्त्व सरधकै, सुरंग मुकति के सुख विलसन्त । । श्री . ।। २ ।।
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