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________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन ४२. भाई! ब्रह्मज्ञान नहिं जाना रे...... सब संसार दुःख सागरमें, जामन मरन कराना रे।।भाई. ।। तीन लोकके सब पुद्गल तें, निगल निगल उगलाना रे। छर्दि डारके फिर तू चाखै, उपजै तोहि न ग्लाना रे ।।भाई. ।।१।। आठ प्रदेश बिन तिहुँ जगमें, रहा न कोई ठिकाना रे। उपजा मरा जहाँ तू नाहीं, सो जानै भगवाना रे ।।भाई. ।।२।। भव भवके नख केस नालका, कीजे जो इक ठाना रे। होंय अधिक ते गिरी सुमेरुतें, भाखा वेद पुराना रे ।।भाई. ।।३।। जननी थन-पय जनम जनम को, जो तैं कीना पाना रे। सो तो अधिक सकल सागरतें, अजहूँ नाहिं अघाना रे।।भाई. ।।४।। तोहि मरण जे माता रोई, आँसू जल सगलाना रे । अधिक होय सब सागरसेती, अजहूँ त्रास न आना रे।।भाई. ।।५।। गरभ जनम दुख बाल बृद्ध दुख, वार अनन्त सहाना रे। दरवलिंग धरि जे तन त्यागे, तिनको नाहिं प्रमाना रे।।भाई. ।।६।। बिन समभाव सहे दुख एते, अजहूँ चेत अयाना रे। ज्ञान-सुधारस पी लहि 'द्यानत', अजर अमरपद थाना रे।।भाई.।।७।। ४३. भाई! ज्ञान बिना दुख पाया रे........ भव दशआठ उस्वास स्वास में, साधारन लपटाया रे।।भाई. ।। काल अनन्त यहाँ तोहि बीते, जब भई मंद कषाया रे। तब तू तिस निगोद सिंधूत, थावर होय निसारा रे ।।भाई. ।।१।। क्रम क्रम निकस भयो विकलत्रय, सो दुख जात न गाया रे। भूख प्यास परवश सहि पशुगति, वार अनेक विकाया रे।।भाई. ।।२।। नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, पुतरी अगन जलाया रे। सीत तपत दुरगंध रोग दुख, जानैं श्रीजिनराया रे ||भाई. ॥३।। भ्रमत भ्रमत संसार महावन, कबहूँ देव कहाया रे। लखि परविभौ सह्यौ दुख भारी, मरन समय बिललाया रे।।भाई. ।।४।। पाप नरक पशु पुन्य सुरग वसि, काल अनन्त गमाया रे। पाप पुन्य जब भये बराबर, तब कहुँ नरभव पाया रे ।।भाई. ।।५।। नीच भयो फिर गरभ खयो फिर, जनमत काल सताया रे। तरुणपनै तू धरम न चेते, तन-धन-सुत लौ लाया रे ।।भाई. ।।६।। दरवलिंग धरि धरि बहुमरि तू, फिरि फिरि जग भ्रमि आया रे। 'द्यानत' सरधाजुत गहि मुनिव्रत, अमर होय तजि काया रे।।भाई. ।।७।। ४४. भाई! ज्ञानी सोई कहिये...... करम उदय सुख दुख भोगते, राग विरोध न लहिये।।भाई. ।। कोऊ ज्ञान क्रिया कोऊ, शिवमारग बतलावै । नय निहचै विवहार साधिकै दोऊ चित्त रिझावै ।।भाई. ।।१।। कोई कहै जीव छिनभंगुर, कोई नित्य बखानै । परजय दरवित नय परमानै, दोऊ समता आनै ।।भाई. ।।२।। कोई कहै उदय है सोई, कोई उद्यम बोलै । 'द्यानत' स्यादवाद सुतुलामें, दोनों वस्तु तोलै ।भाई. ।।३।। ४५. भैया! सो आतम जानो रे!...... जाकै बसौं बसत है रे, पाँचों इन्द्री गाँव । जास बिना छिन एकमें रे, गाँव न नाँव न ठाँव ।।भैया. ।।१।। आप चलै अरु ले चलै रे, पीछे सौ मन भार । ता बिन गज हल ना सके रे, तन खींचै संसार । भैया, ।।२।। जाको जारै मारतें रे, जरै मरै नहिं कोय । जो देखै सब लोककों रे, लोक न देखै सोय ।।भैया. ।।३ ।। घटघटव्यापी देखिये रे, कुंथू गज सम रूप। जानै मानै अनुभवै रे, 'द्यानत' सो चिद्रूप ।।भैया. ।।४ ।। (१४)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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