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अध्यात्मनवनीत
(अर्घ्य) बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता। अरे पूर्णता पाने में, क्या है इसकी आवश्यकता ।। मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ मेरी माया। बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ लिये, अर्पण के हेतु चला आया ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(दोहा) समयसार जिनदेव हैं, जिन प्रवचन जिनवाणि । नियमसार निर्ग्रन्थ गुरु, करें कर्म की हानि ।।
(देव) हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको ना अबतक पहिचाना। अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर, चौरासी के चक्कर खाना ।। करुणानिधि तुमको समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा। भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खड़ा रहा ।। तुम वीतराग हो लीन स्वयं में, कभी न मैंने यह जाना। तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैंने पहिचाना ।। प्रभु वीतराग की वाणी में, जैसा जो तत्त्व दिखाया है। जो होना है सो निश्चित है, केवलज्ञानी ने गाया है ।। उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया। बनकर पर का कर्ता अबतक, सत् का न प्रभो सन्मान किया ।।
(शास्त्र) भगवान तुम्हारी वाणी में, जैसा जो तत्त्व दिखाया है। स्याद्वाद नय अनेकान्त मय, समयसार समझाया है।। उस पर तो ध्यान दिया न प्रभो, विकथा में समय गमाया है। शुद्धात्म रुचि न हुई मन में, ना मन को उधर लगाया है।।
श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजन मैं समझ न पाया था अबतक, जिनवाणी किसको कहते हैं। प्रभु वीतराग की वाणी में, कैसे क्या तत्त्व निकलते हैं।। राग धर्ममय धर्म रागमय, अबतक ऐसा जाना था। शुभ कर्म कमाते सुख होगा, बस अबतक ऐसा माना था ।। पर आज समझ में आया है, कि वीतरागता धर्म अहा। राग-भाव में धर्म मानना, जिनमत में मिथ्यात्व कहा ।। वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है। यह है मुक्ति का मार्ग निरंतर, हमको जो दिखलाती है।।
(गुरु) उस वाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओं ने पहिचाना है। उन गुरुवर्यों के चरणों में, मस्तक बस हमें झुकाना है।। दिन-रात आत्मा का चिंतन, मृदु सम्भाषण में वही कथन । निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रगट हो रहा अन्तर्मन ।। निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो। ज्ञानी ध्यानी समरससानी, द्वादश विधि तप नित करते जो।। चलते फिरते सिद्धों से गुरु, चरणों में शीश झुकाते हैं। हम चलें आपके कदमों पर, नित यही भावना भाते हैं।।
(देव-शास्त्र-गुरु) हो नमस्कार शुद्धातम को, हो नमस्कार जिनवर वाणी। हो नमस्कार उन गुरुओं को, जिनकी चर्या समरससानी ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) दर्शन दाता देव हैं, आगम सम्यग्ज्ञान । गुरु चारित्र की खानि हैं, मैं वंदौं धरि ध्यान ।।
पुष्पांजलि क्षिपेत्