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अध्यात्मनवनीत
अरे शुभ उपयोग से जो युक्त वह तिर्यग्गति । अर देव मानुष गति में रह प्राप्त करता विषयसुख ।। ७० ।। उपदेश से है सिद्ध देवों के नहीं है स्वभावसुख । तनवेदना से दुखी वे रमणीक विषयों में रमे । । ७१ ।। नर-नारकी तिर्यंच सुर यदि देहसंभव दुःख को । अनुभव करें तो फिर कहो उपयोग कैसे शुभ-अशुभ ? ।। ७२ ।। वज्रधर अर चक्रधर सब पुण्यफल को भोगते । देहादि की वृद्धि करें पर सुखी हों ऐसे लगे । । ७३ ।। शुभभाव से उत्पन्न विध-विध पुण्य यदि विद्यमान हैं । तो वे सभी सुरलोक में विषयेषणा पैदा करें । ७४ ।। अरे जिनकी उदित तृष्णा दुःख से संतप्त वे । हैं दुखी फिर भी आमरण वे विषयसुख ही चाहते । । ७५ । । इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है। है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है ।। ७६ ।। पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है - जो न माने बात ये । संसार - सागर में भ्रमें मद-मोह से आच्छन्न वे ।।७७ ।। विदितार्थजन परद्रव्य में जो राग-द्वेष नहीं करें। शुद्धोपयोगी जीव वेतनजनित दुःख को क्षय करें ।।७८ ।। सब छोड़ पापारंभ शुभचारित्र में उद्यत रहें । पर नहीं छोड़े मोह तो शुद्धातमा को ना लहें ।। ७९ ।। हो स्वर्ग अर अपवर्ग पथदर्शक जिनेश्वर आपही । लोकाग्रथित तपसंयमी सुर-असुर वंदित आपही ।। ५ ।। देवेन्द्रों के देव यतिवरवृषभ तुम त्रैलोक्यगुरु । जो नमें तुमको वे मनुज सुख संपदा अक्षय लहें ॥६॥ द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को । वे जानते निज आतमा दृगमोह उनका नाश हो ।। ८० ।।
• आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ५-६
प्रवचनसार पद्यानुवाद
जो जीव व्यपगत मोह हो - निज आत्म उपलब्धि करें । वे छोड़ दें यदि राग रुष शुद्धात्म उपलब्धि करें ।। ८१ ।। सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी । सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ॥। ८२ ।। अरे समकित ज्ञान सम्यक्चरण से परिपूर्ण जो । सत्कार पूजा दान के वे पात्र उनको नमन हो ।।७।। द्रव्यादि में जो मूढ़ता वह मोह उसके जोर से । कर राग-रुष परद्रव्य में जिय क्षुब्ध हो चहुंओर से ।। ८३ ।। बंध होता विविध मोहरु क्षोभ परिणत जीव के । बस इसलिए सम्पूर्णत: वे नाश करने योग्य हैं ।। ८४ । । अयथार्थ जाने तत्त्व को अति रती विषयों के प्रति । और करुणाभाव ये सब मोह के ही चिह्न हैं ।। ८५ ।। तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से ।
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मोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए ।। ८६ ।। द्रव्य-गुण- पर्याय ही हैं अर्थ सब जिनवर कहें। अर द्रव्य गुण - पर्यायमय ही भिन्न वस्तु है नहीं ।। ८७ ।। जिनदेव का उपदेश यह जो हने मोहरु क्षोभ को । वह बहुत थोड़े काल में ही सब दुखों से मुक्त हो ।। ८८ ।। जो जानता ज्ञानात्मक निजरूप अर परद्रव्य को । वह नियम से ही क्षय करे दृगमोह एवं क्षोभ को ।। ८९ ।। निर्मोह होना चाहते तो गुणों की पहिचान से । तुम भेद जानो स्व-पर में जिनमार्ग के आधार से ।। ९० ।। द्रव्य जो सविशेष सत्तामयी उसकी दृष्टि ना । तो श्रमण हो पर उस श्रमण से धर्म का उद्भव नहीं ।। ९९ ।। आगमकुशल दृगमोहहत आरूढ़ हों चारित्र में । बस उन महात्मन श्रमण को ही धर्म कहते शास्त्र में ।। ९२ ।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ७