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________________ ११० समयसार कलश पद्यानुवाद १११ अध्यात्मनवनीत नित निःशंक सद्वृष्टि को कर्मबंध न होय। पूर्वोदय को भोगते सतत निर्जरा होय ।।१६१।। बंध न हो नव कर्म का पूर्व कर्म का नाश । नृत्य करें अष्टांग में सम्यग्ज्ञान प्रकाश ।।१६२।। बंधाधिकार (हरिगीत) मदमत्त हो मदमोह में इस बंध ने नर्तन किया। रसराग के उद्गार से सब जगत को पागल किया ।। उदार अर आनन्दभोजी धीर निरुपधि ज्ञान ने। अति ही अनाकुलभाव से उस बंध का मर्दन कि य । । । १ ६ ३ । । कर्म की ये वर्गणाएँ बंध का कारण नहीं। अत्यन्त चंचल योग भी हैं बंध के कारण नहीं।। करण कारण हैं नहीं चिद्-अचिद् हिंसा भी नहीं। बस बंध के कारण कहे अज्ञानमय रागादि ही।।१६४।। भले ही सब कर्मपुद्गल से भरा यह लोक हो। भले ही मन-वचन-तन परिस्पन्दमय यह योग हो।। चिद् अचिद् का घात एवं करण का उपभोग हो। फिर भी नहीं रागादि विरहित ज्ञानियों को बंध हो ।।१६५।। तो भी निरर्गल प्रवर्तन तो ज्ञानियों को वर्ण्य है। क्योंकि निरर्गल प्रवर्तन तो बंध का स्थान है।। वांच्छारहित जो प्रवर्तन वह बंध विरहित जानिये। जानना करना परस्पर विरोधी ही मानिये ।।१६६।। जो ज्ञानीजन हैं जानते वे कभी भी करते नहीं। करना तो बस राग है जो करें वे जाने नहीं ।। अज्ञानमय यह राग तो है भाव अध्यवसान ही। बंधकारण कहे ये अज्ञानियों के भाव ही ।।१६७।। जीवन-मरण अरदुक्ख-सुखसब प्राणियोंकेसदा ही। अपने कर्म के उदय के अनुसार ही हों नियम से ।। करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख। विविध भूलों से भरी यह मान्यता अज्ञान है।।१६८।। करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख। मानते हैं जो पुरुष अज्ञानमय इस बात को ।। कर्तृत्व रस से लबालब हैं अहंकारी वे पुरुष । भव-भव भ्रमें मिथ्यामती अर आत्मघाती वे पुरुष ।।१६९।। (दोहा) विविध कर्म बंधन करें जो मिथ्याध्यवसाय। मिथ्यामति निशदिन करें वे मिथ्याध्यवसाय ।।१७०।। निष्फल अध्यवसान में मोहित हो यह जीव । सर्वरूप निज को करे जाने सब निजरूप ।।१७१।। (रोला) यद्यपि चेतन पूर्ण विश्व से भिन्न सदा है, फिर भी निजकोकरेविश्वमय जिसके कारण। मोहमूल वह अधवसाय ही जिसके न हो, परमप्रतापी दृष्टिवंत वे ही मुनिवर हैं ।।१७२।। (आडिल्ल) सब ही अध्यवसान त्यागने योग्य हैं, यह जो बात विशेष जिनेश्वर ने कही। इसका तो स्पष्ट अर्थ यह जानिये, अन्याश्रित व्यवहार त्यागने योग्य है ।। परमशुद्धनिश्चयनय का जो ज्ञेय है, शुद्ध निजातमराम एक ही ध्येय है।
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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