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समयसार कलश पद्यानुवाद
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अध्यात्मनवनीत और पुद्गलमयी कर्म कर्मरूप हुआ, ज्ञानी पार हुए भवसागर अपार से ।।९९।।
पुण्यपापाधिकार
(हरिगीत) शुभ अर अशुभ के भेद से जो दोपने को प्राप्त हो। वह कर्म भी जिसके उदय से एकता को प्राप्त हो ।। जब मोहरज का नाश कर सम्यक् सहित वह स्वयं ही। जग में उदय को प्राप्त हो वह सुधानिर्झर ज्ञान ही ।।१००।।
(रोला) दोनों जन्मे एक साथ शूद्रा के घर में।
एक पला बामन के घर दूजा निज घर में ।। एक छुए ना मद्य ब्राह्मणत्वाभिमान से।
दूजा डूबा रहे उसी में शूद्रभाव से ।। जातिभेद के भ्रम से ही यह अन्तर आया।
इस कारण अज्ञानी ने पहिचान न पाया ।। पुण्य-पाप भी कर्म जाति के जुड़वा भाई।
दोनों ही हैं हेय मुक्ति मारग में भाई।।१०१।। अरे पुण्य अर पाप कर्म का हेतु एक है।
आश्रय अनुभव अर स्वभाव भी सदाएकहै।। अत: कर्म को एक मानना ही अभीष्ट है। भले-बुरे का भेद जानना ठीक नहीं है।।१०२।।
(दोहा) जिनवाणी का मर्म यह बंध करें सब कर्म । मुक्तिहेतु बस एक ही आत्मज्ञानमय धर्म ।।१०३।।
(रोला) सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से।
अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में ।।
अरे मुनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते।
निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते ।।१०४।। ज्ञानरूप ध्रुव अचल आतमा का ही अनुभव।
मोक्षरूप है स्वयं अत: वह मोक्षहेतु है ।। शेष भाव सब बंधरूप हैं बंधहेतु हैं। इसीलिए तो अनुभव करने का विधान है।।१०५।।
(दोहा) ज्ञानभाव का परिणमन ज्ञानभावमय होय। एकद्रव्यस्वभाव यह हेतु मुक्ति का होय ।।१०६।। कर्मभाव का परिणमन ज्ञानरूप ना होय। द्रव्यान्तरस्वभाव यह इससे मुकति न होय ।।१०७।। बंधस्वरूपी कर्म यह शिवमग रोकनहार । इसीलिए अध्यात्म में है निषिद्ध शतवार ।।१०८।।
(हरिगीत) त्याज्य ही हैं जब मुमुक्षु के लिए सब कर्म ये। तब पुण्य एवं पाप की यह बात करनी किसलिए ।। निज आतमा के लक्ष्य से जब परिणमन हो जायगा। निष्कर्म में ही रस जगे तब ज्ञान दौड़ा आयगा ।।१०९।। यह कर्मविरति जबतलक ना पूर्णता को प्राप्त हो। हाँ, तबतलक यह कर्मधारा ज्ञानधारा साथ हो ।। अवरोध इसमें है नहीं पर कर्मधारा बंधमय । मुक्तिमारग एक ही है, ज्ञानधारा मुक्तिमय ।।११०।। कर्मनय के पक्षपाती ज्ञान से अनभिज्ञ हों। ज्ञाननय के पक्षपाती आलसी स्वच्छन्द हों।।