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अध्यात्मनवनीत
समयसार कलश पद्यानुवाद
(हरिगीत) निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को। जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन्न-भिन्न ही हैं जानते ।। जग में पड़े अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह । अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है ।।४३।। अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में। बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में ।। यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है ।।४४।। जब इसतरह धाराप्रवाही ज्ञान का आरा चला। तब जीव और अजीव में अतिविकट विघटन होचला।। अब जबतलक हों भिन्न जीव-अजीव उसके पूर्व ही। यहज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा।।४५।।
कर्ताकर्माधिकार
(हरिगीत) मैं एक कर्ता आत्मा क्रोधादि मेरे कर्म सब। है यही कर्ताकर्म की यह प्रवृत्ति अज्ञानमय ।। शमन करती इसे प्रगटी सर्व विश्व विकाशनी। अतिधीर परमोदात्त पावन ज्ञानज्योति प्रकाशनी ।।४६ ।। परपरिणति को छोड़ती अर तोड़ती सब भेदभ्रम । यह अखण्ड प्रचण्ड प्रगटित हुई पावन ज्योति जब ।। अज्ञानमय इस प्रवृत्ति को है कहाँ अवकाश तब। अर किसतरह हो कर्मबंधन जगीजगमग ज्योति जब ।।४७।।
(सवैया इकतीसा) इसप्रकार जान भिन्नता विभावभाव की,
कर्तृत्व का अहं विलायमान हो रहा। निज विज्ञानघनभाव गजारूढ़ हो,
निज भगवान शोभायमान हो रहा ।। जगत का साक्षी पुरुषपुराण यह,
अपने स्वभाव में विकासमान हो रहा । अहो सद्ज्ञानवंत दृष्टिवंत यह पुमान,
जग-मग ज्योतिमय प्रकाशमान हो रहा ।।४८।। तत्स्वरूप भाव में ही व्याप्य-व्यापक बने,
बने न कदापि वह अतत्स्वरूप भाव में ।। कर्ता-कर्म भाव का बनना असंभव है,
व्याप्य-व्यापकभाव संबंध के अभाव में। इस भांति प्रबल विवेक दिनकर से ही,
भेद अंधकार लीन निज ज्ञानभाव में। कर्तृत्व भार से शून्य शोभायमान,
पूर्ण निर्भार मगन आनन्द स्वभाव में ।।४९।। निजपरपरिणति जानकार जीव यह,
परपरिणति को करता कभी नहीं। निजपरपरिणति अजानकार पुद्गल,
परपरिणति को करता कभी नहीं।। नित्य अत्यन्त भेद जीव-पुद्गल में,
करता-करमभाव उनमें बने नहीं, ऐसो भेदज्ञान जबतक प्रगटे नहीं,
करता-करम की प्रवृत्ती मिटे नहीं ।।५०।।