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समयसार पद्यानुवाद
अध्यात्मनवनीत पर लालिमायुत द्रव्य के संयोग से हो लाल वह ।।२७८।। त्यों ज्ञानिजन रागादिमय परिणत न होते स्वयं ही। रागादि के ही उदय से वे किए जाते रागमय ।।२७९।। ना स्वयं करता मोह एवं राग-द्वेष-कषाय को। इसलिए ज्ञानी जीव कर्ता नहीं है रागादि का ।।२८०।। राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो। उनरूप परिणत जीव फिर रागादि का बंधन करे ।।२८१।। राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो। उनरूप परिणत आतमा रागादि का बंधन करे ।।२८२।। है द्विविध अप्रतिक्रमण एवं द्विविध है अत्याग भी। इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ।।२८३।। अत्याग अप्रतिक्रमण दोनों द्विविध हैं द्रवभाव से। इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ।।२८४।। द्रवभाव से अत्याग अप्रतिक्रमण होवें जबतलक । तबतलक यह आतमा कर्ता रहे - यह जानना ।।२८५।। अध:कर्मक आदि जो पुद्गल दरब के दोष हैं। परद्रव्य के गुणरूप उनको ज्ञानिजन कैसे करें ?।।२८६ ।। उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गल दरबमय अचेतन । कहे जाते वे सदा मेरे किये किस भाँति हों? ||२८७।।
मोक्ष अधिकार कोई पुरुष चिरकाल से आबद्ध होकर बंध के। तीव्र-मन्दस्वभाव एवं काल को हो जानता ।।२८८।। किन्तु यदि वह बंध का छेदन न कर छूटे नहीं। तो वह पुरुष चिरकाल तक निज मुक्ति को पाता नहीं।।२८९।। इस ही तरह प्रकृति प्रदेश स्थिति अर अनुभाग को।
जानकर भी नहीं छूटे शुद्ध हो तब छूटता ।।२९०।। चिन्तवन से बंध के ज्यों बंधे जन न मुक्त हों। त्यों चिन्तवन से बंध के सब बंधे जीवन मुक्त हों ।।२९१।। छेदकर सब बंधनों को बद्धजन ज्यों मुक्त हों। त्यों छेदकर सब बंधनों को बद्धजिय सब मुक्त हों ।।२९२।। जो जानकर निजभाव निज में और बंधस्वभाव को। विरक्त हों जो बंध से वे जीव कर्मविमुक्त हों।।२९३।। जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हो। दोनों पृथक् हो जाय प्रज्ञाछैनि से जब छिन्न हों ।।२९४।। जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों। बंध को है छेदना अर ग्रहण करना आतमा।।२९५।। जिस भाँति प्रज्ञा छैनी से पर से विभक्त किया इसे । उस भाँति प्रज्ञा छैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ।।२९६।। इस भॉति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हँ वही जो चेतता। अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९७।। इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो देखता। अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९८।। इसभाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो जानता। अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।।२९९।। निज आतमा को शुद्ध अर पररूप पर को जानता। है कौन बुध जो जगत में परद्रव्य को अपना कहे ।।३००।। अपराध चौर्यादिक करें जो पुरुष वे शंकित रहें। कि चोर है यह जानकर कोई मुझे ना बाँध ले ।।३०१।। अपराध जो करता नहीं नि:शंक जनपद में रहे। बंध जाऊँगा ऐसी कभी चिन्ता न उसके चित रहे ।।३०२।। अपराधि जिय 'मैं बधूंगा' इसतरह नित शंकित रहे ।