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________________ अध्यात्मनवनीत निजकृत शुभाशुभभाव का कर्ता कहा है आतमा । वे भाव उसके कर्म हैं वेदक है उनका आतमा ।।१०२।। जब संक्रमण ना करे कोई द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में। तब करे कैसे परिणमन इक द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ।।१०३।। कुछ भी करे ना जीव पुद्गल कर्म के गुण-द्रव्य में। जब उभय का कर्ता नहीं तब किसतरह कर्ता कहें ?।।१०४।। बंध का जो हेतु उस परिणाम को लख जीव में। करम कीने जीव ने बस कह दिया उपचार से ।।१०५।। रण में लड़े भट पर कहे जग युद्ध राजा ने किया। बस उसतरह द्रवकर्म आतम ने किए व्यवहार से ।।१०६।। ग्रहे बाँधे परिणमावे करे या पैदा करे। पुद्गल दरव को आतमा व्यवहारनय का कथन है ।।१०७।। गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप को व्यवहार से। त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ।।१०८।। मिथ्यात्व अरु अविरमण योग कषाय के परिणाम हैं। सामान्य से ये चार प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे ।।१०९।। मिथ्यात्व आदि सयोगि-जिन तक जो कहे गुणथान हैं। बस ये त्रयोदश भेद प्रत्यय के कहे जिनसूत्र में ।।११०।। पुद्गल करम के उदय से उत्पन्न ये सब अचेतन । करम के कर्ता हैं ये वेदक नहीं है आतमा ।।११।। गुण नाम के ये सभी प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे। कर्ता रहा ना जीव ये गुणथान ही कर्ता रहे ।।११२।। उपयोग जीव अनन्य ज्यों यदि त्यों हि क्रोध अनन्य हो। तो जीव और अजीव दोनों एक ही हो जायेंगे ।।११३।। यदि जीव और अजीव दोनों एक हों तो इसतरह। का दोष प्रत्यय कर्म अर नोकर्म में भी आयगा ।।११४।। समयसार पद्यानुवाद क्रोधान्य है अर अन्य है उपयोगमय यह आतमा। तो कर्म अरु नोकर्म प्रत्यय अन्य होंगे क्यों नहीं ? ||११५।। यदि स्वयं ही कर्मभाव से परिणत न हो ना बंधे ही। तो अपरिणामी सिद्ध होगा कर्ममय पुद्गल दरव ।।११६।। कर्मत्व में यदि वर्गणाएँ परिणमित होंगी नहीं। तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ।।११७।। यदि परिणमावे जीव पुद्गल दरव को कर्मत्व में। पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को।।११८।। यदि स्वयं ही परिणमें वे पुद्गल दरव कर्मत्व में। मिथ्या रही यह बात उनको परिणमा आतमा ।।११९।। जड़कर्म परिणत जिसतरह पुद्गल दरव ही कर्म है। जड़ज्ञान-आवरणादि परिणत ज्ञान-आवरणादि हैं।।१२०।। यदि स्वयं ही ना बंधे अर क्रोधादिमय परिणत न हो। तो अपरिणामी सिद्ध होगा जीव तेरे मत विर्षे ।।१२१ ।। स्वयं ही क्रोधादि में यदि जीव ना हो परिणमित । तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ।।१२२।। यदि परिणमावे कर्मजड़ क्रोधादि में इस जीव को। पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को।।१२३।। यदि स्वयं ही क्रोधादि में परिणमित हो यह आतमा । मिथ्या रही यह बात उसको परिणमावे कर्म जड़ ।।१२४।। क्रोधोपयोगी क्रोध है मानोपयोगी मान है। मायोपयोगी माया है लोभोपयोगी लोभ है।।१२५।। जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने । ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ।।१२६।। अज्ञानमय हैं भाव इससे अज्ञ कर्ता कर्म का। बस ज्ञानमय हैं इसलिए ना विज्ञ कर्ता कर्म का ।।१२७।।
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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