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अध्यात्मनवनीत जीवमय पुद्गल तथा पुद्गलमयी हो जीव जब । ये मेरे पुद्गल द्रव्य हैं - यह कहा जा सकता है तब ।।२५।। यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन । सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा ।।२६।। 'देह-चेतन एक हैं' - यह वचन है व्यवहार का। 'ये एक हो सकते नहीं' - यह कथन है परमार्थ का ।।२७।। इस आतमा से भिन्न पुद्गल रचित तन का स्तवन । कर मानना कि हो गया है केवली का स्तवन ।।२८।। परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन । केवलि-गुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन ।।२९।। वर्णन नहीं है नगरपति का नगर-वर्णन जिसतरह । केवली-वंदन नहीं है देह वंदन उसतरह ।।३०।। जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा ।।३१।। मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।।३२।। सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक्श्रमण का। तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।।३३।। परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे । तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है।।३४।। जिसतरह कोई पुरुष पर को जानकर पर परित्यजे। बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ।।३५।। मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।।३६।। धर्मादिक मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है धर्म-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।।३७।।
समयसार पद्यानुवाद मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं। ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ।।३८।। परात्मवादी मूढजन निज आतमा जाने नहीं। अध्यवसान को आतम कहें या कर्म को आतम कहें।।३९।। अध्यवसानगत जो तीव्रता या मंदता वह जीव है। पर अन्य कोई यह कहे नोकर्म ही बस जीव है ।।४०।। मन्द अथवा तीव्रतम जो कर्म का अनुभाग है। वह जीव है या कर्म का जो उदय है वह जीव है।।४१।। द्रव कर्म का अर जीव का सम्मिलन ही बस जीव है। अथवा कहे कोइ करम का संयोग ही बस जीव है ।।४२।। बस इसतरह दुर्बुद्धिजन परवस्तु को आतम कहें। परमार्थवादी वे नहीं परमार्थवादी यह कहें।।४३।। ये भाव सब पुद्गल दरव परिणाम से निष्पन्न हैं। यह कहा है जिनदेव ने 'ये जीव हैं' - कैसे कहें।।४४।। अष्टविध सब कर्म पुद्गलमय कहे जिनदेव ने। सब कर्म का परिणाम दुःखमय यह कहा जिनदेव ने ।।४५।। ये भाव सब हैं जीव के जो यह कहा जिनदेव ने। व्यवहारनय का पक्ष यह प्रस्तुत किया जिनदेव ने ॥४६।। सेना सहित नरपती निकले नृप चला ज्यों जन कहें। यह कथन है व्यवहार का पर नृपति उनमें एक है ।।४७।। बस उसतरह ही सूत्र में व्यवहार से इन सभी को। जीव कहते किन्तु इनमें जीव तो बस एक है।।४८।। चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।४९।। शुध जीव के रस गंध ना अर वर्ण ना स्पर्श ना। यह देह ना जड़रूप ना संस्थान ना संहनन ना ।।५।।