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________________ शुद्धात्मशतक पद्यानुवाद ( हरिगीत ) परद्रव्य को परित्याग पाया ज्ञानमय निज आतमा । शतबार उनको हो नमन निष्कर्म जो परमातमा ।। १ ।। परद्रव्य में रत बंधे और विरक्त शिवरमणी वरें। जिनदेव का उपदेश बंध- अबंध का संक्षेप में ||२|| परद्रव्य से हो दुर्गती निजद्रव्य से होती सुगति । यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति ।।३।। नित नियम से निजद्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं । सम्यक्त्व परिणत श्रमण ही क्षय करें करमानन्त हैं ||४|| किन्तु जो परद्रव्य रत वे श्रमण मिथ्यादृष्टि हैं। मिथ्यात्व परिणत वे श्रमण दुष्टाष्ट कर्मों से बंधे ॥ ५ ॥ जो आत्मा से भिन्न चित्ताचित्त एवं मिश्र हैं । उन सर्वद्रव्यों को अरे परद्रव्य जिनवर ने कहा ||६|| दुष्टाष्ट कर्मों से रहित जो ज्ञानविग्रह शुद्ध है । वह नित्य अनुपम आतमा स्वद्रव्य जिनवर ने कहा ।।७।। निजद्रव्य रत यह आतमा ही योगि चारित्रवंत है । यह ही बने परमातमा परमार्थनय का कथन यह ॥८॥ परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमे । बहुभाँति पुद्गल कर्म को ज्ञानी पुरुष जाना करें || ९ || परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें । पुद्गल करम का नंतफल ज्ञानी पुरुष जाना करें ।। १० ।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें। बहुभाँति निज परिणाम सब ज्ञानी पुरुष जाना करें ।। ११ । । शुद्धात्मशतक पद्यानुवाद निज आतमा को शुद्ध अर पररूप पर को जानता । है कौन बुध जो जगत में परद्रव्य को अपना कहे ।। १२ ।। बस आतमा ही आतमा का परीग्रह - यह जानकर । 'परद्रव्य मेरा है' - बताओ कौन बुध ऐसा कहे ? ।। १३ ।। यदि परीग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे । पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं ।। १४ ।। छिद जाय या ले जाय कोई अथवा प्रलय को प्राप्त हो । जावे चला चाहे जहाँ पर परीग्रह मेरा नहीं ।। १५ ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे धर्म को । है परीग्रह ना धर्म का वह धर्म का ज्ञायक रहे ।। १६ ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे अधर्म को । है परिग्रह न अधर्म का वह अधर्म का ज्ञायक रहे ।। १७ ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को । है परिग्रह न असन का वह असन का ज्ञायक रहे ।। १८ ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को । है परिग्रह न पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे ।। १९ ।। इत्यादि विध- विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को । सर्वत्र ही वह निरालंबी नियत ज्ञायकभाव है ||२०|| उदयकर्मों के विविध- विध सूत्र में जिनवर कहे । किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ।। २१ ।। पुद्गल करम है राग उसके उदय ये परिणाम हैं। किन्तु ये मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ॥२२॥ अज्ञानमोहितमती बहुविध भाव से संयुक्त जिय । अबद्ध एवं बद्ध पुद्गल द्रव्य को अपना कहें ।। २३ ।। सर्वज्ञ ने देखा सदा उपयोग लक्षण जीव यह । पुद्गलमयी हो किसतरह किसतरह तू अपना कहे ? ।। २४ ।। ४३
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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