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अध्यात्मनवनीत शुभाशुभपरिणामयुत जिय पुण-पाप सातावेदनी। शुभ आयु नामरु गोत्र पुण अवशेष तो सब पाप हैं।।३८ ।। सम्यग्दरशसद्ज्ञानचारित्र मुक्तिमग व्यवहार से। इन तीन मय शुद्धातमा है मुक्तिमग परमार्थ से ।।३९ ।। आतमा से भिन्न द्रव्यों में रहें न रतनत्रय । बस इसलिए ही रतनत्रयमय आतमा ही मुक्तिमग।।४०।। जीवादि का श्रद्धान समकित जो कि आत्मस्वरूप है।
और दुरभिनिवेश विरहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।।४१ ।। संशयविमोहविभरमविरहित स्वपर को जो जानता। साकार सम्यग्ज्ञान है वह है अनेकप्रकार का ।।४२ ।। अर्थग्राहक निर्विकल्पक और है अविशेष जो। सामान्य अवलोकन करे जो उसे दर्शन जानना ।।४३ ।। जिनवर कहें छद्मस्थ के हो ज्ञान दर्शनपूर्वक। पर केवली के साथ हों दोनों सदा यह जानिये ।।४४ ।। अशुभ से विनिवृत्त हो व्रत समितिगुप्तिरूप में। शुभभावमय हो प्रवृत्ती व्यवहारचारित्र जिन कहें।।४५ ।। बाह्य अंतर क्रिया के अवरोध से जो भाव हों। संसारनाशक भाव वे परमार्थ चारित्र जानिये ।।४६।। अरे दोनों मुक्तिमग बस ध्यान में ही प्राप्त हो। इसलिए चित्तप्रसन्न से नित करो ध्यानाभ्यास तुम ।।४७ ।। यदि कामना है निर्विकल्पक ध्यान में हो चित्त थिर । तो मोह-राग-द्वेष इष्टानिष्ट में तुम ना करो॥४८ ।। परमेष्ठीवाचक एक दो छह चार सोलह पाँच अर। पैंतीस अक्षर जपो नित अर अन्य गुरु उपदेश से ॥४९ ।। नाशकर चऊ घाति दर्शन ज्ञान सुख अर वीर्यमय । शुभदेहथित अरिहंत जिन का नित्यप्रति चिन्तन करो।।५० ।।
द्रव्यसंग्रह पद्यानुवाद
२१३ लोकाग्रथित निर्देह लोकालोक ज्ञायक आतमा। अठकर्मनाशक सिद्धप्रभु का ध्यान तुम नित ही करो।।५१।। ज्ञान-दर्शन-वीर्य-तप एवं चरित्राचार में। जो जोड़ते हैं स्वपर को ध्यावो उन्हीं आचार्य को ।।५२।। रतनत्रय युत नित निरत जो धर्म के उपदेश में। सब साधुजन में श्रेष्ठ श्री उवझाय को वंदन करें ।।५३ ।। जो ज्ञान-दर्शनपूर्वक चारित्र की आराधना। कर मोक्षमारग में खड़े उन साधुओं को हो नमन ।।५४ ।। निजध्येय में एकत्व निष्पृहवृत्ति धारक साधुजन। चिन्तन करें जिस किसी का भी सभी निश्चय ध्यान है।।५५ ।। बोलो नहीं सोचो नहीं अर चेष्टा भी मत करो। उत्कृष्टतम यह ध्यान है निज आतमा में रत रहो।।५६ ।। व्रती तपसी श्रुताभ्यासी ध्यान में हों धुरन्धर । निजध्यान करने के लिए तुम करो इनकी साधना ।।५७ ।। अल्प श्रुतधर नेमिचंद मुनि द्रव्यसंग्रह संग्रही। अब दोषविरहित पूर्णश्रुतधर साधु संशोधन करें ।।५८ ।।
ईसवी सन् दो सहस दो अर चतुर्दश दिसम्बर। को द्रव्यसंग्रह शास्त्र का पूरण हुआ अनुवाद यह ।।
अपने में अपनापन आनन्द का जनक है, परायों में अपनापन आपदाओं का घर है, यही कारण है कि अपने में अपनापन ही साक्षात् धर्म है और परायों में अपनापन महा-अधर्म है। __अपने में से अपनापन खो जाना ही अनन्त दु:खों का कारण है और अपने में अपनापन हो जाना ही अनन्त सुख का कारण है। अनादिकाल से यह आत्मा अपने को भूलकर ही अनन्त दु:ख उठा रहा है।
___ - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-४६,