________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
पाठ १
उपासना देव-शास्त्र-गुरु पूजन
श्री जुगलकिशोरजी 'युगल' कोटा )
( एम. ए., साहित्यरत्न,
स्थापना
केवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर। उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुन्दरतम दर्शन ।। सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण । उन देव परम आगम गुरुको, शत-शत वंदन शत-शत वंदन।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
जल
इन्द्रिय के भोग मधुर - विष सम, लावण्यमयी कंचन काया । यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ।। मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर ममता में अटकाया हूँ । अब निर्मल सम्यक् नीर लिये, मिथ्यामल धोने आया हूँ । ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो मिथ्यात्वमलविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
१. केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों के द्वारा । २. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूपी मुक्ति-मार्ग पर । ३. निरन्तर । ४. मीठा विष। ५. सम्यग्दर्शन। ६. मिथ्यादर्शनरूपी मैल ।
3
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com