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जीवों के घात को द्रव्य–हिंसा कहते हैं और घात करने के भाव को भावहिंसा, इतना तो प्रायः लोग समझ लेते हैं; पर बचाने का भाव भी वास्तव में सच्ची अहिंसा नहीं, क्योंकि वह भी रागभाव है-यह प्रायः नहीं समझ पाते।
रागभाव चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, उसकी उत्पत्ति निश्चय से तो हिंसा ही हैं, क्योंकि वह बंध का कारण है। जब रागभाव की उत्पत्ति को हिंसा की परिभाषा में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने सम्मिलित किया होगा, तब उसके व्यापक अर्थ (शुभ राग और अशुभ राग) का ध्यान उन्हें न रहा हो-ऐसा नहीं माना जा सकता।
अहिंसा की सच्ची और सर्वोत्कृष्ट परिभाषा प्राचार्य अमृतचन्द्र ने दी है कि रागभाव किसी भी प्रकार का हो, हिंसा ही है। यदि उसे कहीं अहिंसा कहा हो तो उसे व्यवहार (उपचार) का कथन जानना चाहिये।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ऐसी अहिंसा तो साधु ही पाल सकते हैं, अतः यह तो उनकी बात हुई। सामान्यजनों (श्रावकों) को तो दयारूप (दूसरों को बचाने का भाव ) अहिंसा ही सच्ची है। पर आचार्य अमृतचन्द्र ने श्रावक के आचरण के प्रकरण में ही इस बात को लेकर यह सिद्ध किया है कि अहिंसा दो प्रकार की नहीं होती, अहिंसा को जीवन में उतारने के स्तर दो हो सकते हैं; हिंसा तो हिंसा ही रहेगी। यदि श्रावक पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता तो वह अल्प हिंसा का त्याग करें; पर जो हिंसा वह छोड़ न सके, उसे अहिंसा तो नहीं माना जा सकता है। यदि हम पूर्णत: हिंसा का त्याग नहीं कर सकते हैं तो हमें अंशतः त्याग करना चाहिए। यदि वह भी न कर सकें तो कम से कम हिंसा को धर्म मानना और कहना तो छोड़ना ही चाहिये। शुभराग राग होने से हिंसा में आता है और उसे हम धर्म मानें, यह तो ठीक नहीं।
राग-द्वेष-मोह भावों की उत्पत्ति होना हिंसा है और उन्हें धर्म मानना महाहिंसा है तथा रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही परम अहिंसा है और रागादि भावों को धर्म नहीं मानना ही अहिंसा के सम्बन्ध में सच्ची समझ है।
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