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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates महावीर की महत्ता ने उन्हें प्रथम गणधर बनाया। इसके अतिरिक्त उनके दश गणधर और थे। जिनके नाम हैं :- (१) अग्निभूति, (२) वायुभूति, (३) आर्यव्यक्त, (४) सुधर्मा, (५) मंडित, (६) मौर्यपुत्र, (७) अकंपित, (८) अचलभ्राता, (९) मेतार्य और (१०) प्रभास। श्रावक शिष्यो में मगध सम्राट महाराजा श्रेणिक (विम्बसार) प्रमुख थे। लगातार तीस वर्ष तक सारे भारतवर्ष में उनका विहार होता रहा। उनका उपदेश इस प्रकार होता था कि सब अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते थे। उनके उपदेश को दिव्यध्वनि कहा जाता हैं। उन्होंने अपनी दिव्यवाणी में जीवादि सर्व द्रव्यों की पूर्ण रूप से स्वतंत्रता की घोषणा की। उनका कहना था कि प्रत्येक प्रात्मा स्वतंत्र हैं, कोई किसी के आधीन नहीं हैं। पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने का मार्ग स्वावलम्बन हैं। रंग, राग और भेद से भिन्न शुद्ध निजात्मा पर दृष्टि केन्द्रित करना ही स्वावलम्बन हैं। अपने बल पर ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती हैं। अनन्त सुख और स्वतंत्रता भीख में प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं हैं और न उसे दूसरों के बल पर ही प्राप्त किया जा सकता है। सब आत्माएँ स्वतंत्र भिन्न-भिन्न हैं; एक नहीं, पर वे एक-सी अवश्य हैं, बराबर हैं, कोई छोटी-बड़ी नहीं। अतः उन्होंने कहा : १. अपने समान दूसरी आत्माओं को जानो। २. सब आत्माएँ समान हैं ; पर एक नहीं। ३. यदि सही दिशा में पुरुषार्थ करे तो प्रत्येक प्रात्मा परमात्मा बन सकती हैं। ४. प्रत्येक प्राणी अपनी भूल से स्वयं दुःखी हैं और अपनी भूल सुधार कर सुखी भी हो सकता हैं । भगवान महावीर ने जो कहा वह कोई नया सत्य नहीं था। सत्य में नये-पूराने का भेद कैसा ? उन्होंने जो कहा वह सदा से है, सनातन है। उन्होनें सत्य की स्थापना नहीं, सत्य का उद्घाटन किया हैं। उन्होनें कोई नया धर्म स्थापित नहीं किया। धर्म तो वस्तु के स्वभाव को कहते हैं। वस्तु का स्वभाव बनाया नहीं जा सकता। जो बनाया जा सके वह स्वभाव Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008320
Book TitleTattvagyan Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size394 KB
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