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पाठ ७
चतुर्दश गुणस्थान
सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य ( व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व )
जह चक्केण य चक्की, छक्खंड साहियं प्रविऽघेण । तह मइ चक्केण मया, छक्खंडं साहियं सम्म ।।
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'जिस प्रकार सुदर्शनचक्र के द्वारा चक्रवर्ती छह खंडो को साधता ( जीत लेता) हैं, उसी प्रकार मैंने ( नेमिचंद्र ने ) अपनी बुद्धिरूपी चक्र से षट्खंण्डागमरूप महान सिद्धान्त को साधा हैं। अतः वे सिद्धान्तचक्रवर्ती कहलाए। ये प्रसिद्ध राजा चामुण्डराय के समकालीन थे और चामुण्डराय का समय ग्यारहवीं सदी का पूर्वार्ध हैं, अतः वे आचार्य नेमिचंद्र भी इस समय भारत-भूमि को अलंकृत कर रह थे।
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ये कोई साधारण विद्वान नहीं थे; इनके द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि उपलब्ध ग्रन्थ उनकी असाधारण विद्वत्ता और “ सिद्धान्तचक्रवर्ती” पदवी को सार्थक करते हैं।
इन्होंने चामुण्डराय के आग्रह पर सिद्धान्त - ग्रन्थों का सार लेकर गोम्मटसार ग्रंथ की रचना की हैं, जिसके जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नामक दो महाधिकार हैं। जीवकांड की अधिकार संख्या २२ और गाथा संख्या ७३३ हैं और कर्मकांड की अधिकार संख्या ९ तथा गाथा संख्या ९७२ हैं । इस समूचे ग्रंथ का दूसरा नाम पंचसंग्रह भी हैं, क्योंकि इसमें निम्नलिखित पांच बातों का वर्णन हैं :(१) बंध (२) बध्यमान (३) बंधस्वामी ( ४ ) बंधहेतु और (५) बंधभेद।
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