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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तो बहुत जीव सुनतें हैं, सब का हित क्यों नही हो जाता ? भगवान महावीर के जीव का हित मारीचि के भव में ही क्यों नहीं हो गया ? क्या वहाँ सद्निमित्तों की कमी थी? पिता चक्रवर्ती भरत, धर्मचक्र के आदि प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव बाबा। भगवान ऋषभदेव के समवसरण में उनका उपदेश सुनकर तो उसने विरोध-भाव उत्पन्न किया था। क्या उनके उपदेश में कोई कमी थी ? क्या चारण ऋद्धिधारी मुनियो का उपदेश उनसे भी अच्छा था ? इसी से सिद्ध होता हैं कि जब उपादान की तैयारी हो तब कार्य होता ही हैं और उस समय योग्य निमित्त भी होता ही हैं, उसे खोजने नहीं जाना पड़ता है। क्रूर शेर की पर्याय में घोर वन में उपदेश का कहाँ अवसर था ? पर उसका पुरुषार्थ जगा तो निमित आकाश से उतर कर आये। इसलिए तो कहा था कि आत्मार्थी को निमित्त की खोज में व्यग्र नही होना चाहिए। “निमित्त नहीं होता' यह कौन कहता है ? पर निमित्तों को खोजना भी नहीं पड़ता। जब उपादान में कार्य होता हैं तो तद्नुकूल निमित्त होता ही हैं। निमित्तो के अनुसार कार्य नहीं होता हैं, कार्य के अनुसार निमित्त कहा जाता हैं। वेश्या के मृत शरीर को देखकर रागी को राग और वैरागी को वैराग्य उत्पन्न होता हैं। वह वेश्या रागी के राग और वैरागी के वैराग्य का निमित्त कही जाती हैं। यदि निमित्त के अनुसार कार्य होता हो तो उसे देखकर प्रत्येक को या तो राग ही उत्पन्न होना चाहियें या फिर वैराग्य ही। आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी कहते हैं – “पर द्रव्य कोई जबरन तो बिगाड़ता नहीं हैं, अपने भाव बिगड़े तब वह भी बाह्य निमित्त हैं। तथा इसके निमित बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिए नियमरूप से निमित्त भी नहीं हैं। इस प्रकार पर-द्रव्य का तो दोष देखना मिथ्याभाव हैं।” __ न तो निमित्त उपादान में बलात् कुछ करता हैं और न ही उपादान किन्हीं निमित्तों को बलात् लाता या मिलाता है। दोनों का सहज ही संबंध होता हैं। निमित्त-नैमित्तिक संबंध की सहजता को पंडित टोडरमलजी ने इस प्रकार स्पष्ट किया हैं :१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, श्री. दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, २४३ २९ Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008320
Book TitleTattvagyan Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size394 KB
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