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एसी बंधपद्धति बखानी वीतराग देव,
आतम धरममैं करम त्याग-जोग है। भौ-जल-तरैया, राग-द्वेष कौ हरैया महा
मोख कौ करैया एक सुद्ध उपयोग है।।७।। शील, तप, संयम, व्रत, दान, पूजा आदि अथवा असंयम, कषाय, विषयभोग आदि-इनमें कोई शुभरूप हैं और कोई अशुभरूप हैं; किन्तु मूल वस्तु के विचार करने पर दो प्रकार का कर्म रोग ही हैं। भगवान वीतरागदेव ने ऐसी ही बंध की पद्धति कही हैं। पुण्य-पाप दोनों को बंधरूप व बंध का कारण कहा हैं, अतः आत्म-धर्म (आत्मा का हित करने वाले धर्म) में तो संपूर्ण शुभअशुभ कर्म त्यागने योग्य हैं। संसार-समुद्र से पार उतारने वाला, राग-द्वेष को समाप्त करने वाला और मोक्ष को प्राप्त करने वाला एक मात्र शुद्धोपयोग ही हैं, शुभोपयोग और अशुभोपयोग नहीं । शिष्य - सिष्य कहै स्वामी तुम करनी असुभ सुभ,
कीनी है निषेध मेरे संसै मन मांही है। मोखमैं सधैया ग्याता देसविरती मुनीस,
तिनकी अवस्था तौ निरावलंब नांही है ।। गुरु - कहै गुरु करमको नास अनुभौ अभ्यास,
असो अवलंब उनही कौ उन पांही है।। निरुपाधि प्रातम समाधि सोई सिवरूप,
और दौर धूप पुद्गल परछांही है ।।८।। यह सुन कर शिष्य कहता हैं कि हे गुरुदेव! आपने शुभ और अशुभ को समान बताकर दोनों का निषेध कर दिया हैं। अतः मेरे मन में एक संशय उत्पन्न हो गया हैं कि मोक्षमार्ग की साधना करने वाले अविरति सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थानवर्ती), अणुव्रती (पंचम-गुणस्थानवर्ती) और महाव्रती (षष्ठंगुणस्थानवर्ती) जीवों की अवस्था बिना अवलंबन के तो रह नही सकती हैं; उन्हें तो व्रत, शील, संयम, दया, दान, जप, तप, पूजनादिक का अवलंबन चाहिए ही। अतः आप इन कर्मो का निषेध क्यों करते हैं ?
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