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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ही मेरा कुल है। मैं अनादिकाल का कर्मों से पराधीन हूँ। इस मनुष्य पर्याय में यदि उत्तमकुल मिला है तो इसका गर्व करना महाअनर्थ है।
पूर्व भवों में मैं अनंतबार नारकी हुआ, अनंतबार सिंह-व्याघ्र-सों के कुलों में पैदा हुआ; अनंतबार सूकर, कूकर, गीदड़, गधा, ऊंट, भेड़, भैंसा, स्याल इत्यादि के कुलों में पैदा हुआ; अनंतबार म्लेच्छों के, भीलों के, चांडालों के, चमारों के, धीवरों के, कसाईयों के कुलों में पैदा हुआ; अनेकबार नाई, धोबी, तेली, खाती, लुहार, भड़भूजा, चारण, भाट, डोम, भांडों के कुलों में पैदा हुआ; अनेकबार निर्धनों के कुल में पैदा हुआ हूँ। कभी किसी शुभ कर्म के उदय से ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्यों के कुलों में आकर पैदा हो गया, तो अब कर्म के किये कुल में आकर गर्व करना बड़ा अज्ञान है। इस कुल में मुझे कितने दिनों तक रहना है ? अनादि से इस कुल में मेरा निवास तो था नहीं, नया पैदा हुआ हूँ, मरकर फिर पुण्य-पाप के अनुसार किसी अन्य कुल में पैदा होना होगा।
उत्तम कुल प्राप्त करने का फल तो ये है कि मोक्षमार्ग का साधक रत्नत्रय में प्रवर्तन करना तथा अधम आचरण का त्याग करना। ऐसा भी विचार करना-मुझे पुण्य के प्रभाव से उत्तम कुल मिला है इसलिये नीचकुल के मनुष्यों के समान अभक्ष्य नहीं खाना चाहिये; कलह, विसंवाद, मारपीट, गाली, भण्ड वचन नहीं बोलना चाहिये; जुआ खेलना, वेश्या सेवन, चोरी करना आदि उचित नहीं है; निंद्य कर्म, शारीरिक परिश्रम वाली जीविका करना अयोग्य है; हास्य, असत्य वचन, छलकपट करना उचित नहीं है। यदि मैं अब उत्त पाकर भी निंद्य कर्म करूंगा तो इसलोक में निन्दा योग्य होकर आगे दुर्गति का पात्र होऊँगा। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि कुल का मद नहीं करता है।।
जातिमद :- माता के वंश को जाति कहते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव जाति का गर्व नहीं करता है। सम्यग्दृष्टि विचार करता है - पूर्व भवों में मैं अनंतबार नीचजाति में पैदा हआ तब एकबार उच्चजाति में पैदा हुआ, इस प्रकार अनंतबार नीचजाति पाई और अनंतबार उच्चजाति भी पाई हे। अब उच्च जाति पाने का क्या गर्व करते हो ? अनेकबार निगोद में पैदा हुआ , कूकरी, सूकरी, चांडाली, भीलनी, चमारी, दासी, वेश्याओं के गर्भ में भी अनेक बार जन्म धारण किया है।
यह जाति तो पुण्यपाप कर्म का फल है जो रस देकर खिर जायेगा। जाति-कुल में रूकना कितने दिन का है ? इसलिये जाति-कुल को विनाशीक कर्म के आधीन जानकर उत्तम शील पालने में, क्षमा धारण करने में, स्वाध्याय में, परोपकार में, दान में, विनय में प्रवर्तन करके जाति का उच्चपना सफल करो। जाति का मद करके संसार में नष्ट मत होओ।४।।
बलमद :- सम्यग्दृष्टि के बल का मद भी नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि विचार करता है - मैं आत्मा अनन्तबल का धारी हूँ; किन्तु कर्मरूपी मेरे प्रबल बैरी ने मेरा बल नष्ट करके बलरहित एकेन्द्रिय विकलत्रय आदि में मेरा सम्पूर्ण बल आच्छादित करके मेरी ऐसी बलरहित दशा की है जहाँ मैं जगत की ठोकरों से कुचला गया, चीथा गया हूँ। अब किसी वीर्यान्तराय कर्म का कुछ क्षयोपशम पाकर के इस मनुष्य शरीर में युवा अवस्था में आहार के आश्रय से कुछ बल का उघाड़ हुआ है।
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