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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार] [४३ मिट्टीरूप जलरूप हो जाते हैं, और मिट्टी-जलादि मांस, रक्त मलादि रूप हो जाते हैं तथापि पर्याय-पर्याय में बहुत अंतर है। द्रव्य और पर्याय के सर्वथा एकता मानने से समस्त व्यवहारपरमार्थ का लोप हो जायेगा, इसलिये द्रव्य-पर्याय के कथंचित-एकपना कथंचित-अनेकपना मानना ही श्रेष्ठ है। ___ बालू का पिण्ड बनाने में, पर्वत से गिरने में, अग्नि में जलने में, शीत में गलने में, पंचाग्नि तप तपने में धर्म मानना लोकमूढ़ता है। सूर्य-चन्द्र ग्रहणादि में सूतक मानना, स्नान करना, चांडाल आदि को दान देना, संक्राति मानकर दान देना; कुआ पूजना, पीपल पूजना, गाय को पूजना, रुपया-सिक्का-मोहर को पूजना, लक्ष्मी को पूजना, मृत पितरों को पूजना, छींक पूजना, मृतकों को तृप्त करने के लिये तर्पण करना, श्राद्ध करना, देवताओं के लिये रतजगा करना; गंगाजल को पवित्र मानना, तिर्यंचों के रूप को देव मानना; कुआ, बावड़ी, वापिका, तालाब खुदवानें में धर्म मानना, बगीचा लगाने में धर्म मानना; मृत्युंजय आदि के जप कराने से अपनी मृत्यु का टल जाना मानना, ग्रहों का दान देने से अपने दुःख दूर होना मानना; यह सब लोक मूढ़ता है। बहुत कहने से क्या ? जो योग्य-अयोग्य, सत्य-असत्य, हित-अहित, आराध्यअनाराध्य का विचार रहित लौकिक जीवों की प्रवृत्ति देखकर जैसे अज्ञानी अनादि के मिथ्यादृष्टि प्रवर्तते हैं उसी प्रकार की प्रवृति को सत्य मान कर विचार रहित होकर प्रवर्तन करना वही लोकमूढ़ता है। कितने ही जिनधर्मी कहलाते हुए भी आत्मज्ञान रहित होकर परमागम की आज्ञा को नहीं जानते हुए भेषधारियों द्वारा कल्पित अनेक क्रियाकाण्ड तथा तीर्थंकरादि का तर्पण कराना, अपने पिता व पितामह का तर्पण कराना, यक्षादि के लिये होम, यज्ञादि करने में अपना कल्याण होना मानते हैं; शकलीकरणादि विधान कराना यह सब लोकमूढ़ता ही है। कितने ही स्नान करके रसोई करने में, स्नान करके जीमने में, आला (बिना किसी दूसरे के स्पर्श किये) वस्त्र पहिनकर जीमने में अपनी पवित्रता, शुद्धता, परमधर्म ही मानते हैं; परन्तु अभक्ष्य भक्षण तथा हिंसादि के होने का विचार ही नहीं करते हैं; यह सब मिथ्यात्व के उदय से लोकमूढ़ता ही है। अब देवमूढ़ता कहनेवाला श्लोक कहते हैं - वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः ।। देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते ।।२३।। अर्थ :- जो अपने को अच्छा लगता है उसे वर कहते हैं। वर की इच्छा करके आशावान होकर के जो रागद्वेष से मलिन देवताओं का सेवन करता है - पूजन करता है उसे देवतामूढ़ कहते हैं और उसका कार्य देवमूढ़ता कहलाती है। संसारी जीव इस लोक में राज्य, संपत्ति, स्त्री, पुत्र, आभूषण, वस्त्र, वाहन, धन, ऐश्वर्य आदि की इच्छा सहित निरन्तर रहते हैं। इनकी प्राप्ति के लिये रागी, द्वेषी, मोही, देवों की सेवा-पूजा करना Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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