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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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से कैसे शुद्ध होगा? और यह शरीर जल के स्नान आदि से शुद्ध हो गया तो किसी दूसरे के स्नान का छींटा लग जाने से पुनः अपवित्र हुआ ही माना जायेगा।
ऊपर
गंगा, पुष्कर आदि में हजारोबार स्नान - कुल्ला करके यदि फिर किसी अन्य वस्तु कुल्ला कर देगा तो वह वस्तु महाअपवित्र ही मानी जावेगी। जल से तो शरीर के ऊपर लगा हुआ मैल साफ हो जाता है तथा वस्त्रों की मलिनता धोने से साफ हो जाती है, किन्तु जल देह को उज्जवल पवित्र नहीं कर सकता है। जैसे - कोयला को ज्यों-ज्यों धोवो त्यों त्यों महामलिनता ही प्रकट होती है। इसलिये स्नान करने से पवित्र होना मानना वह तो तीव्र मिथ्यात्व है।
और भी विचार करो :- जगत में जल बराबर अपवित्र कोई भी नहीं हैं। जिसमें निरंतर मेंढक, कछुआ, सर्प, ऊंदरा, बिसमरा, मक्खी, मच्छर आदि अनेक जीव नित्य ही मरते हैं। जिसमें चमड़ा, हड्डी आदि सभी गल जाते हैं और अनेक त्रस जीवों का जिसमें घात होता है ऐसा महानिंद्य अपवित्र जल, उसके स्पर्श - स्नान होने से कैसे पवित्रता होगी ? गंगादि नदियों में करोड़ो मनुष्यों के मल, मूत्र, रक्त, मांस, कीचड़ तथा मृतक मनुष्य - तिर्यंचों के कलेवर घुलते रहते हैं उस गंगा का जल कैसे पवित्र करेगा ? जल का सूतक तो कभी मिटता ही नहीं है ।
जल से तो शरीर के बाहर लगा हुआ मैल धुलकर दूर हो जाता है जिससे मन की ग्लानि मिट जाती है। जल से पवित्र होना मानना तथा स्नान में धर्म मानना तो मिथ्यादर्शन है। यदि गंगा
जल से ही पवित्रता हो जाय व स्नान करके ही मुक्ति हो जाये तो कीर-धीवरों के पवित्रता ठहरे व उनकी ही मुक्ति भी हो । अन्य दान - पूजादि सभी निष्फल हो गये । मिथ्यात्व के प्रभाव से सब लोग विपरीत श्रद्धानी हो रहे हैं।
जो आठ प्रकार की लौकिक शुचि कही है वह तो व्यवहार आचार - कुलाचार को ही उज्जवल करने में समर्थ है, परन्तु शरीर को पवित्र नहीं कर सकती है। श्रीराजवार्तिकजी में अशुचि भावना में कहा भी है कि ये तो मन में आप स्वयं ने ग्लानि मान रखी है जो इस संकल्प से दूर कर लेता है कि मैंने तो स्नान कर लिया है।
पवित्रता ( शौच का वर्णन )
चिपना दो प्रकार का है एक लौकिक, दूसरा लोकोत्तर जिसे अलौकिक भी कहते हैं। वहाँ जिसका कर्ममल-कलंक दूर हुआ ऐसे आत्मा का अपने स्वभाव में स्थित रहना वह लोकोत्तर शुचिपना है। उस लोकोत्तर शुचिता की प्राप्ति के साधन सम्यग्दर्शनादि हैं और सम्यग्दर्शनादि के धारक साधु हैं; और उनका आधार निर्वाणभूमि आदि हैं; वे भी सम्यग्दर्शनादि के उपाय हैं, इसलिये वे भी शुचि नाम से कहे जाने योग्य हैं।
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लौकिक शुचिपना आठ प्रकार का है शौच ४, गोमय शौच ५, जल शौच ६, पवन
काल शौच १, भस्म शौच २, अग्नि शौच ३, मृत्तिका शौच ७, ज्ञान शौच ८
ये आठ शौच-शुद्धियाँ शरीर
को पवित्र करने में समर्थ नहीं है । लौकिक जनों द्वारा व्यवहार की इस शौच के छोड़े देने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा, हीन आचरण की ग्लानि नहीं रह जायेगी, सभी एक जैसे हो जायेंगे तब
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