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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
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जिसके निर्विचिकित्सा अंग है, उसके ही दया है, उसके वैयावृत्य होती है, उसी के वात्सल्य, स्थितिकरणादि गुण प्रकट होते हैं। इस प्रकार यह सम्यक्त्व का निर्विचिकित्सा नाम का अंग कहा है। अब अमूढ़दृष्टि नाम का सम्यक्त्व का चौथा अंग कहनेवाला श्लोक कहते हैं -
कापथे पथि दु:खांना कापथस्थेऽप्यसंमतिः ।
असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढ़ा दृष्टिरुच्यते ॥१४।। अर्थ :- नरक-तिर्यंच-कुमनुष्यादि गतियों का घोर दुखों का मार्ग ऐसा जो मिथ्यामार्ग उसकी , तथा कुमार्गी अर्थात् मिथ्यामार्ग पर चलनेवाले पुरुषों की जो मन से प्रशंसा नहीं करता, वचनों से स्तवन नहीं करता तथा काय से हाथ की अंगुलियां नखादि मिलाकर सराहना नहीं करता वह अमूढ़दृष्टि है। ___भावार्थ :- यहाँ संसारी जीव मिथ्यात्व के प्रभाव से रागी-द्वेषी देवों की पूजन-प्रभावना देखकर प्रशंसा करते हैं; देवियों के पास जीवों का घात-विराधना देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं; दश प्रकार के कुदान को अच्छा समझते हैं; यज्ञ होमादि की तथा खोटे मंत्र-तंत्र-मारण-उच्चाटन आदि कार्यों की प्रशंसा करते हैं; कुआ, बावड़ी, तालाब खुदवाने की प्रशंसा करते हैं; कंदमूल, शाक, पत्रादि खानेवालों को उच्च जानकर प्रशंसा करते है; पंचाग्नि तपनेवाले, बाघाम्बर ओढनेवाले, भस्म लगानेवाले, ऊपर की ओर हाथ करके रहनेवालों को महान उच्च जानकर प्रशंसा करते हैं; गेरु से रंगे वस्त्र , लाल वस्त्र, श्वेत वस्त्र पहिननेवाले कुलिंगियों के मार्ग की प्रशंसा करते हैं; खोटे तीर्थों को और खोटे रागी-द्वेषी, मोही, वक्र परिणामी, शस्त्रधारी देवों को पूज्य मानते हैं; जोगिनी, यक्षणी, क्षेत्रपालादि को धन को देनेवाला व रोगादि को दूर करनेवाला मानते हैं; यक्ष, क्षेत्रपाल, पद्मावती, चक्रेश्वरी इत्यादि को जिनशासन के रक्षक मानकर पूजते हैं।
देवताओं के कवलाहार मानकर तेल, लपसी, पुआ, बड़ा तथा इत्र, फूलमाला इत्यादि से देवता प्रसन्न होना मानते हैं; देवताओं को रिश्वत-सोंक देने का वचन कहते हैं कि - यदि मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो जाय तो तुम्हारे लिये छत्र चढ़ाऊंगा, मंदिर बनवाऊंगा, रुपया दूंगा, जीवों को मारकर चढ़ाऊंगा, सवामणी करूंगा; तथा बच्चे जी जावें इसलिये उनकी चोटी, जडूला उतराऊंगा इत्यादि अनेक बोली बोलते हैं - वह सब तीव्र मिथ्यात्व के उदय का प्रभाव है।
जहाँ जीवों की हिंसा है वहाँ महाघोर पाप है। देवताओं के निमित्त से और गुरुओं के निमित्त से की जानेवाली हिंसा संसार समुद्र में डुबोनेवाली ही है। कोई भी देवताओं के भय से , लोभ से, लज्जा से हिंसा के आरंभ में कभी मत प्रवर्तो। दयावान की तो देव रक्षा ही करते हैं। जो किसी का अपराध नहीं करता, बैर नहीं करता, उसकी विराधना देव भी नहीं कर सकते हैं।
रागी, द्वेषी, शस्त्रधारी जो देव हैं वे तो स्वयं ही दुःखी हैं, भयभीत हैं, असमर्थ हैं। यदि वे स्वयं समर्थ हों, भय रहित हों तो शस्त्र धारण क्यों - कैसे करते हैं ? जिसे भूख लगती है वह ही
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